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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२४ उं.१२ सू०५ मनुष्यजीवानामुत्पत्तिनिरूपणम् १३९ 'पंच इंदिया' पञ्चेन्द्रियाणि श्रोत्रचक्षुत्रमरसनस्पर्शनारूपानि १३ । 'पंच समु ग्घाया' पश्च समुद्घाताः वेदनाधारभ्य तेजसान्ताः पञ्च १४ । 'वेयणा दुविहा वि' वेदना द्विविधा साताऽसाताख्या १५ । 'इथिवे या चि पुरिसवेयगा वि' खीवेदका अपि पुरुषवेदका अपि ते जीवा भवन्ति वेदकद्वयवन्त एव भवन्ति ' णो णपुंसंगवेगा' नो नपुंसक वेदका भवन्तीति १६ । ठिई जहन्नेणं दस वाससहस्साई ' स्थितिर्जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, 'उक्कोसेणं लाइरेगं सागरोपमं' उत्कर्षेण सातिरेकं सागरोपमं, 'जघन्योतकृष्टाभ्यां दशवर्षसहस्रपाविरेक सागरोपमात्मिका स्थितिमंत्रतीति । १७ । 'अज्झनसाणा असंखेज्जा पसस्था वि अपसत्था वि' अध्यवसायाः असंख्येयाः प्रशस्ताः शुभाः, अप्रशस्ताः - अशुभाश्रभवन्तीति १८ । 'अणुबंधो जहा में ये 'पंचिदिया' पांचों इन्द्रियों वाले होते हैं । समुद्घातद्वार में इनके सात समुद्घातों में से 'पंच समुग्धाषा' पांच समुद्घात होते हैं, वेदना, कषाय, मारणान्तिक आदि तैजसान्त पर्यन्त वेदना द्वार में ' वेधणा दुविहा वि' इनके साता और असातारूप दोनों प्रकार की वेदना होती है, वेदद्वार में - पे इत्थवेपणा थि पुरिवेषणा वि' स्त्रीवेद वाले भी होते हैं और पुरुष वेद वाले भी होते हैं । 'जो णपुंसगवेगा' पर ये नपुंसक वेद वाले नहीं होते हैं । स्थिति द्वार में 'टिई जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्को सेणं साइरेगं सागरोवमं' इनकी स्थिति जघन्य से तो दश हजार वर्ष की होती है और उत्कृष्ट से वह कुछ अधिक एक सागरोपम की होती है । 'अज्झदसाणा असंखेज्जा पलत्था वि अपसत्था वि' अध्यक्षसाथ इनके असंख्यात होते हैं और ये शुभ रूप भी होते हैं औरछद्रियी वाणा होय छे. सभुद्द्धात द्वारभां तेयाने सात समुद्द्धात पैडी 'पंचस्रमुग्घाया' यांन्य सभुद्द्धात होय छे. भेटले ! बेहना, उषाय, भारषान्तिः, मने तैक्स सुधाना पंथ संभुद्धानो होय छे. 'वेयणा दुविधा वि' भने સાતા અને અસાતા રૂપ અન્ને પ્રકારની વેદના હોય છે. વેદદ્વારમાં તેએક્ 'इत्थवेया विपुरिसवेयगा दि.' स्त्रीदेहवाना या होय छे भने ३ष वेहबाजा पथु हाय छे. 'णो णपुंसगवेयगा' परंतु तेथे। नपुंसः बेहवाना होता नथी, स्थितिद्वारभां 'ठिई जहन्नेणं दसवास सहरसाइ उक्केासेणं साइरेग सागરેમ” તેમની સ્થિતિ જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષની હાય છે અને ઉત્કૃષ્ટથી ४४६ वधारे मे सागरोपमनी होय छे. 'अज्झवसाणा असंखेज्जो पसत्था वि अपवत्था वि' तेमाने मध्यवसाय असभ्यात होय हे गने ते शुभ ३५ ·
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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