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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ. १२ सू०४ पञ्चेन्द्रियजीवानामुत्पत्तिनिरूपणम् ९७ अपर्याप्त केम्य उत्पद्यन्ते हे भदन्त यदि असंज्ञिभ्य आगत्योत्पद्यन्ते तत्रापि जलचरस्थलचरखेचरेभ्य भागत्य समुत्पद्यन्ते तदा किं पर्याप्तकेभ्य एभ्य आगत्योत्पद्यन्ते अथवा अपर्याप्तकेभ्य एभ्य आगत्योत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा हे गौतम | 'पज्जत्तपर्हितो वि उववज्जंति' पर्याप्तकेभ्य एभ्योऽपि आगत्य उत्पद्यन्ते एवम् 'अपजत्तएहिंतो वि उववज्जेति' अपर्याप्त केम्योऽपि एभ्यो जलचरादिस्य आगत्य पृथिवीकायि के पृत्पद्यन्ते पञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका इति । 'असन्निपंर्चिदियतिरिक्खजोणिए णं संते' असंक्षिपश्वे. न्द्रियतिर्यग्योनिकः खल भदन्त ! 'जे भविष पुढवीकारसु उववज्जित्तर' यो मन्यः पृथिवीकायिकेषूत्यत्तुम् ' से णं भंते' स खलु भन्त | 'केत्रइयकालडिएस उपवज्जेजा' कियत्कालस्थितिकेषु पृथिवीकार्यि के पृत्पद्येत, हे भदन्त । योऽसंज्ञिचन्द्रियतिर्यग्योनिकः पृथिवीकायिकेपूत्पत्चियोग्यो विधते स कियत्कालस्थितिकपृथिवीकायिकेपूपधेत इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ' हे गौतम! 'जएन्नेणं अंतोमुहुरा०' जघन्येन अन्तर्मुहू स्थितिकेषु 'उनको सेणं प्रभु कहते हैं - हे गौतम! वह पृथिवीकायिक जीव पर्यातक जलचरादिकों से भी आकरके उत्पन्न होता है । और अपर्याप्त जलचरादिकों से भी आकर के उत्पन्न होता है अब गौतम पुनः प्रभु से ऐसा पूछते हैं'असन्नि पंचिदिद्यतिरिक्खजोणिए णं भंते ?' हे भदन्त ! असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक 'जे भविए पुढचिकाइएस उववज्जित्तए' जो पृथिवीकायिफों में उत्पन्न होने के योग्य है 'से णं भंते ! केवहयकालहि उथवज्जेज्जा' हे भदन्त | वह कितने काल की स्थितिवाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोया ! जहन्नेणं अंतोमुस० उक्कोसेणं घावीसवासमहस्त०' वह जघन्य से एक ગૌતમ ! તે પૃથ્વીકાયિક છત્ર પર્યાપ્તક જલચર વિગેરેમાંથી આર્થીને પશુ ઉત્પન્ન થાય છે અને અપર્યાપ્તક જલચર વિગેરેમાંથી આવીને પશુ ઉત્પન્ન थाय छे. इरीथी गौतभस्वाभी अलुने छे छे है- 'असन्निपंचिदियतिरिक्त्र जोणिए णं भ'ते !' हे भगवन् असंज्ञी यथेन्द्रिय तिर्यथयोनि 'जे भविप पुढवीका इस उववजित्तए' ? पृथ्विभिथि।मां बन्न थवाने योग्य है, 'से णं भंते " केवइयकालट्ठिएम् अवज्र्ज्जति' हे भगवन् ते हेटसा अणनी स्थितिवाजा पृथ्वीप्रायिसां उत्पन्न याय हे? मा प्रश्नमा उत्तर है- 'गोयमा !' लद्दण्णेणं ऋतोमुहुत्त० यफोसेणं बावीसत्रामसम्म० वन्यथी ते मे मतिर्भु भ० १३
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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