SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीसत्रे ૦૬ कालमानं भवतीति । ' एवइयं जाव करेज्जा' एतावन्तं यावत्कुर्यात् एतावकालपर्यन्तमेव त्रीन्द्रियगतिं पृथिवीगतिं च सेवेत - तथा एतावत्कालपर्यन्तमेवत्रीन्द्रियगत पृथिवीगतौ च गमनागमने कुर्यादिति १-२-३ । 'मज्झिमा विभि गमगा तहेव' मध्यमास्त्रयो गमका स्तथैव यथैव मध्यमा द्वीन्द्रियगमा इति । 'पच्छिमा विविन्नि गमगा तहेव' पश्चिमाश्चरमा अपि त्रयो गमका स्तथैव यथैव चरमा यो गमा इति । द्वीन्द्रियचरमगमापेक्षया त्रीन्द्रियचरमगमे वैलक्षण्यं दर्शनायाह- 'नवरे' इस्थादि, 'णवरं' नवरम् - केवलम् 'ठिई जहन्नेणं एगूगपन्नं राई दियाइ" स्थितिर्जघन्येन एकोनपञ्चाशद्रात्रिदिवम् तथा 'उक्कोसेण वि एगूणपन्नं राईदियाई' उत्कर्ष वोऽपि एकोनपञ्चाशद्राजिदिवम् चरमगमत्रयेऽपि वह तेइन्द्रिय जीव इतने काल तक ही तेइन्द्रियगति को और पृथिवी. कायिक गति का सेवन करता है । और इतने ही काल तक वह उस गति में गमनागमन करता है १-२-३ | 'मज्झिमा तिनि गमगा तहेव' मध्यम जो तीन गम हैं वे भी दीन्द्रिय के मध्यम गम के जैसे हैं । " पच्छिमा वि तिनि गमगा तहेव' और अन्तिम तीन गमक भी द्वीन्द्रिय के अन्तिम तीन गमकों के ही जैसे हैं । परन्तु हीन्द्रिय के चरम गमकी अपेक्षा 'जो तेइन्द्रिय के चरम गममें वैलक्षण्य है, वह इस प्रकार से हैं"ठई जहन्ने एगूणपन्नं राइंदियाह उक्कोसेण वि एगूजपनं राइ दियाई ' स्थिति जघन्य से ४९ रात्रि-दिन की है और उत्कृष्ट से भी वह ४९ ही रात-दिन की है, तात्पर्य कहने का यह है कि यहाँ अन्त के तीनों गमों P પૃથ્વીકાયની ગતિનું સેવન કરે છે. અને એકલા જ કાળ સુધી તે ગમના शमन - वर ४२ ४३ छे, १-२-३ 'मज्झिमा तिन्ति गमगा तहेव' मध्यना ? गभी उद्या ते भा गभो त्रषु वन्द्रियवाजा वाना भध्यगभ प्रभा] ४ हे. 'पच्छिमा वि तिन्नि गमगा સદેવ' તથા છેલ્લા ત્રણ ગમા પણ એ ઇન્દ્રિયવાળા જીવેાના ત્રણ ગમે પ્રમાણે જ છે, પરંતુ એ ઇન્દ્રિયવાળા જીવાના દેલ્લા ગમની અપેક્ષએ ત્રણ ઇ‘દ્રિય बाजा भवानी छेसा गभमा नुहायागु छे, ते भा रीते छे.- 'ठिई जहन्नेणं एगूणपन्न राइ दियाई उक्कोसेण वि एगुणपन्न राइ दियाई' स्थिति धन्यथी ૪૯ આગણપચાસ હેારાત્ર-રાત દિવસની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ તે ‘આગણપચાસ દિનરાતની જ છે. કહેવાનુ તાત્પય એ છે કે અહિયાં છેલ્લા
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy