SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 603
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'प्रमेयचन्द्रिका ठीका श०२४ उ. २ सू०१ असुरकुमारदेवस्योत्पादादिकम् ५७७ स्थितिर्जघन्येन सातिरेका पूर्वकोटिः, 'उकोसेण वि साविरेगा पुन्नकोडी' उत्कपेणापि सातिरेका पूर्वकोटिरेव प्रथमगमे जघन्या स्थितिरेतादृशी एव कथिता, उत्कृष्टा तु त्रिपल्योपमास्मिका, इह तु जघन्योत्कृष्टाभ्यां सातिरेका पूर्वकोटिरेवेति, भवत्येव वैलक्षण्यमिति । ' एवं अणुबंधो वि' एवमनुबन्धोऽपि एवमेत्र -स्थितिवदेव • अनुबन्धोऽपि जघन्योत्कृष्टाभ्यां सातिरेकपूर्वकोटिममाणएवेति । कायसंवेधो भवादेशेन प्रथमगमत्रदेव भवद्वयग्रहणात्मकः, 'कालादेशेन - काळापेक्षया कायसंवेधः 'जहन्नेणं साइरेगा पुन्त्रकोडी दसहिं दाससदस्सेहिं अन्भहिया' जघन्येन सातिरेका पूर्वकोटि, दशभिर्वर्षसह सैरभ्यधिका, 'उक्को सेर्ण सातिरेगाओ दो youकोडीओ' उत्कर्षेण सातिरेके द्वे पूर्वकोट्यौं, 'एवइयं ० ' एता मानने में आता है । 'ठिई जहन्नेणं सातिरेगा पुञ्चकोडी' स्थिति यहां जघन्य से भी कुछ अधिक एक पूर्वकोटि रूप है और उत्कृष्ट से भी कुछ अधिक एक पूर्वकोटिरूप है । प्रथम गम में भी जघन्य स्थिति ऐसी ही कही गई है पर वहां उत्कृष्ट स्थिति तीन पत्थोपम की कही गयी है । ' एवं अणुबंधो वि' स्थिति रूप होने से अनुबन्ध भी जघन्ध और कृष्ट से सातिरेक पूर्वकोटि रूप ही है । कायसंवेध भव की अपेक्षा प्रथम गम के जैसे दो भवग्रहणरूप है एवं काल की अपेक्षा वह जघ - न्य से दश हजार वर्ष अधिक सातिरेक पूर्वकोटि रूप है, इस प्रकार इतने फाल तक वह तिर्यग्गति एवं असुरकुमारगति का सेवन करता है और इतने ही कालतक वह उसमें गमनागमन करता है । ऐसा यह चौथा गम है । तेभनी होय छे. तेभ मानवामां आवे छे 'ठिई जहण्णेणं सातिरेगा पुण्य - દોડ્ડી' અહિયાં સ્થિતિ જન્યથી પણ કંઇક વધારે એક પૂર્કટિ રૂપ છે. थडेला जभभां षाणु धन्य स्थिति मेन अभाये ही छे. 'एवं अनुबंधो वि સ્થિતિ રૂપ હોવાથી અનુષંધ પણ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી સાતિ પૂર્વ કાટિ રૂપ છે, કાયસ વેધ’ભવની અપેક્ષાએ પહેલા ગમ પ્રમાણે એ ભવ અહધુ રૂપ છે, અને કાળની અપેક્ષાએ તે જઘન્યથી દસ હજાર વષ અધિક. સાતિ પૂર્ણાંકોટિ રૂપ જ છે. આ રીતે આટલા કાળ સુધી તે તિય ચ કૃતિ અને અસુરકુમાર ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી તે તેમાં ગમનાગમન આવજા કરે છે, આ પ્રમાણે આ ચાથા ગમ કહ્યો છે, PUB भ० ७३
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy