SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 581
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ. २ सू०१, असुरकुमारदेवस्योत्पादादिकम् ५६५ f ग्योनिकेभ्य आगत्य असुरकुमार देवे पूत्पद्यन्ते 'मणुह से हिंतो उत्रवज्जंति', तथा मनुष्येभ्य आगत्या सुरकुमारदेवेत्यद्यन्ते 'नो देवेर्हितो उवयज्जति' 'नो देवेभ्य आगत्य असुरकुमारतयोत्पद्यन्ते असुरकुमाराः नो नारकेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते नवा देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते अपि तु तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्य तथा मनुः येभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते इति भावः । ' एवं जहेब नेरइयउद्देसए जाव' एवं यथैव नैरयिकउदेश के यावत् यथा नैरविकोदेशके चतुर्विंशविशकस्य प्रथमो देश के नारकाणामुत्पादपरिमाणले श्यादृष्टिज्ञानाज्ञानयोगोपयोगादिकविषये कथितं तथैव इदासुकुमारविषयेऽपि ज्ञातव्यम् । संक्षेपतोऽसुरकुमारस्योत्पत्तिविषये नारकातिदेशेन विचारं प्रदर्श्य विशेषतो विचाराय अग्रिमप्रकरणमवतारयति - 'पत्तअसन्नि' इत्यादि, 'पज्जत असनि पंचिदियतिरिखखजोगिएणं भंते' पर्याप्ताहिंतो उब०' वे तिर्यग्योनिकों में से आकर के उत्पन्न होते है 'मणुस्सेहिंतो उव० ' मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं, परन्तु 'नो देवेहितो उव०' देवों में से आकर के वे उत्पन्न नहीं होते हैं । तात्पर्य कहने कॉ यही है कि असुरकुमार देव न नरकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं और न देवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं किन्तु तिर्यञ्चों में से आकर कें और मनुष्य में से आकर के जीव असुरकुमार देव रूप से उत्पन्न होते हैं । ' एवं जहेब नेरइयउद्देसर जाव' जिस प्रकार से इस शतक के प्रथम उद्देश में नारकों के उत्पाद परिमाण, लेश्या, दृष्टि, ज्ञानाज्ञान, योग, उपयोग आदि के विषय में कहा गया है उसी प्रकार से यहाँ असुरकुमार के विषय में भी जानना चाहिये, इस प्रकार संक्षेप से असुरकुमार की उत्पत्ति के विषय में नारक की समानता के विचार को प्रकट करके अब सूत्रकार विशेषरूप से विचार करने के लिये तिर्यस्य योनि अभांथी भवीने उत्पन्न थाय छे. 'मणुरसेहिंतो उव०' तेथे। मनुष्याभांथी भावीने उत्पन्न थय छे. परंतु 'देवेहि'तो नो उव०' हेवेाभांथी આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. કહેવ નું તાત્પર્ય એજ છે કે- અસુરકુમારદેવ નારકામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી તેમજ દેવેશમાંથી પણ આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. પર ંતુ તિય ચામાંથી અને મનુષ્ચામાંથી આવીને જીવ અસુરકુમાર देवपशाथी उत्पन्न थाय छे 'पर्व' जहेव नेरइयउद्देसए जाव' ? रीते मा ચાવીસમાં શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં નારકના ઉત્પાત, પરિણામ, વૈશ્યા, दृष्टि, ज्ञान अज्ञान, योग, उपयोग, विगेरेना विषयमा अडेवामां आवे छे. એજ પ્રકારથી અહિયાં અસુકુમારાના વિષયમાં પણુ સમજવુ જોઈએ. આ રીતે સક્ષેપથી અસુરકુમારની ઉત્પત્તિના વિષયમાં નારકના સરખાપણાના વિચાર બતાવીને હવે સૂત્રકાર વિશેષરૂપે વિચાર કરવા માટે આગળ કહેવામાં
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy