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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२४ ३.१ सू०८ श० षष्ठपृथ्वीगतजीवानामुदिकम् ५३९ प्रथमं वज्रऋषभनाराचसंहननं भवति नान्यत्संहननम्, एवम्-'इत्थियवेयगा न उववति' स्त्रीवेदकाः नोत्पधन्ते सप्तमनरके स्त्रीणां पठनरकपर्यन्तमेव गमनस्य सिद्धत्वात् । 'सेस तं चेत्र जात्र अणुबंधोति शं तदेव यावदलुबन्ध इति, संहननवेदव्यतिरिक्त सर्वमपि शर्करापृथिवीगमव देव द्रष्टव्यम् कियत्पर्यन्तं तत्राह-'जावं अणुवंधोत्ति' यावदनुबन्ध इति, अनुबन्धपर्यन्तं पूर्वपकरणवदेव ज्ञातव्यमिति । 'भवादेसेण दो भवग्गहगाई भवादेशेन भाद्वयग्रहणमेव 'कालादेसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोचमाई चासपुहुत्तगम्भहियाई' कालादेशेन जघन्यतो द्वाविंशतिः - सागरोपमाणि वर्ष पृथक्त्वाभ्यधिकानि, 'उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुच्चकोडीए अमहियाई उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोट्यभ्यधिकानि, इह उत्कृष्टता कायसंवेधः एतावन्तमेव कालं जानीयात् सप्तमपृथिवीहोता है, और दूसरा कोई संहनन नहीं होता है, 'इस्थिवेयगा न उचवज्जति' इसी प्रकार से यहां स्त्री वेदधाले जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। क्योंकि स्त्री वेदवालों का गमन छठे नरक तक ही सिद्ध है, 'सेसंत चेव जाव अणुबंधोत्ति' इस प्रकार संहनन और वेद इनसे अतिरिक्त और जो कथन है वह सब अनुबंधद्वार तक शर्करा पृथिवी के गम जैसा ही है । 'भवादेसेणं' भव की अपेक्षा दो भवों को ग्रहण करने तक और कालादेलेणं०' और काल की अपेक्षा जघन्य ले वर्ष पृथक्त्व अधिक २२ सागरोपमा तक और उत्कृष्ट से पूर्वेकोटि अधिक ३३ सागरोपम तक वह जीव उस मनुष्य गति का और सप्तम नरक गतिका सेवन करता है और इतने ही काल तक वह उसमें गमनागमन करता हैं, 'यहां उत्कृष्ट से जो फायसंवेध इतने काल का कहा गया है सो उल्लका कारण ऐसा है कि सपनम पृथिवी नरक से निकले हुए छ. शिवायनु भाई पY संहनन हातु नी 'इस्थिवेयगा न उववज्जति' से शत महियां स्त्रीवहवाणा ! (पन्न यता नथी. भश्रीवाणा वाना गम छ। न२४ 'सुधी निश्चित छ. 'सेस' चेव जाव अणुबंधोत्ति' मारीत सहनन मन शिवाय माहीतुंगारेथन હોય તે સઘળું અનુબંધ દ્વાર સુધીનું શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના ગમ પ્રમાણે જ છે 'भवादेसे णं.' मनी मपेक्षाथी मे मवान ए २i सुधी मन 'कालादेसेणं' કાળની અપેક્ષાએ જઘન્યથી વર્ષ પૃથક્વ અધિક ૨૨ બાવીસ સાગરોપમ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વકેટ અધિક ૩૩ તેત્રીસ સાગરોપમ સુધી તે જીવ એ મનુષ્ય ગતિનું અને સાતમી નરક ગતિનુ સેવન કરે છે. અને તેમાં ગમનાગમન-અવર જવર કરતો રહે છે. અહિયાં ઉત્કૃષ્ટધી કાયસંવેધ જે એટલા કાળને કહ્યો છે, સાતમી નરક પૃથ્વીથી નીકળેલા નારકને મનુષ્યમાં ઉત્પાત
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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