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________________ प्रमेययन्द्रिका टीका श०२४ उ. १ सू०७ मनुष्येभ्यो नारकाणामुत्पत्यादिकम् ५१५ तु जघन्पोत्कृष्टाभ्यां पञ्चचतुःशतान्येवेति भवत्येव उपयोगं तयोः पार्थंकरमिति । 'ठिई जहन्नेणं पुव्त्रकोडी' स्थितिर्जघन्येन पूर्वकोटिः, 'उक्कोसेण वि पुण्त्रकोडी' उत्कर्षेणापि पूर्वकटिरेव 'एवं अणुबंधो वि' एवमनुबन्धोऽपि जघन्येन पूर्वकोटि उत्कृष्टोऽपि पूर्व कोटिरेवानुबन्धः, पूर्व प्रथमगमे स्थित्यनुवन्धौ जघन्यतो मांसपृथक्त्वरूपौ उत्कृष्टतः पूर्वकोटिप्रमाणकौ कथितौ इह तु जघन्योत्कृष्टाभ्यामुभाभ्यामपि पूर्वको टिममाणकावेव इति भावः । 'कालादेसेणं जहन्नेणं पुण्त्रकोडी दसहि वाससदस्सेदिं अमहिया' कालादेशेन - कालापेक्षया जघन्येन पूर्वकोटि: दशभिर्व सहसैरभ्यधिका, 'उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई' उत्कृष्टतश्चत्वारि सागरोपमाणि, 'उर्हि पुचकोडी अमहियाई' चतसृभिः पूर्वको टिभिरभ्यधिकानि गयी है । परन्तु यहां वह जघन्य और उत्कृष्ट दोनों रूप से पांच सौ ही धनुष की कही गयी है । इस प्रकार से दोनों गमों में भिन्नता है । 'ठिई जहन्नेणं पुव्यकोडी ० ' यहां पर स्थिति जवन्य से एक पूर्वकोटि की है और उत्कृष्ट से भी एक पूर्वकोटि की ही है, 'एवं अणुबंधो चि' इसी प्रकार से अनुबन्ध भी है- जघन्य से वह एक पूर्वकोटि का है, और उत्कृष्ट से भी वह एक पूर्वकोटि का है । प्रथम गम में स्थिति और अनुबन्ध ये दोनों जघन्य से मासपृथकत्वरूप और उत्कृष्ट से पूर्व कोटिरूप कहे गये हैं, पर यहां ये दोनों ही जघन्य और उत्कृष्ट से पूर्व कोटि रूपं ही प्रगट किये गये हैं । 'कालादेसेणं जहन्नेणं पुञ्चकोडी दसहिं वास सहस्सेहिं अमहिया' काल की अपेक्षा वह जीव जघन्य से दश हजार वर्ष अधिक एक पूर्वकोटि तक और उत्कृष्ट से 'चत्तारि सागरोवमाइं० ' 'चार पूर्व कोटि अधिक चार सागरोपम तक उस मनुष्य गति का और नरक ધનુષની કહી છે. પરંતુ અહિયાં તે જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ અને પ્રકારથી પાંચસેા ધનુષની જ કહેલ છે. આ રીતે મને ગમેામાં જુદાપણુ છે. છીદ્ जहण्णेणं पुव्वकोडी०' मडियां धन्य स्थिति मे पूर्व अटीनी छे भने - ष्टथी पशु थोड पूर्व अटीनी' ४ छे. 'एवं अणुव 'घ वि.' 'ते अनु धना સંબધમાં પણ સમજવું અર્થાત્ જઘન્યથી તે એક પૂર્વ કાટીના છે, અને ઉત્કૃ ટથી પણ પૂર્વ કેાટી રૂપ કહેલ છે પહેલા ગમમાં સ્થિતિ અને અનુંમ ધ એ મેઉ જઘન્યથી માસપૃથક્ રૂપ અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂ`મટિ રૂપ કહેલ છે. અહિયાં ते मन्ने धन्य भने उत्सृष्टथी पूर्वअटी ३ये ४ एडेस छे, 'काला देणं जणेणं पुव्त्रकेाडी दसहि वास स हस्सेहि अमहिया' अजनी अपेक्षा मे ते ४० न्यथी इस हेजर वर्ष अधि से पूर्व अटि सुधी भने उत्सृष्टथी 'चत्तारि सागरोवमाइं०' थार पूर्व अटि अधिक यार सागरोपम सुधी ते मनुष्य गतिनुं
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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