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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू०७ मनुष्येभ्यो नारकाणामुत्पत्यादिकम् ५११ पुहुत्तमम्भहियाई' मासपृथक्वाभ्यधिकानि मामद्वयादारभ्य नवमासपर्यन्तम् । उक्कोसेणं चत्तालीसं वाससहस्साई' उत्कृष्टेन चत्वारिंशद्वर्प सहस्राणि 'चहि मास: पुहुत्तेहिं अमहियाइं चतुभिर्मासपृथक्त्वैरभ्यविकानि एतावत्पर्यन्तम् । 'एवइयं जाव करेजा' एतावन्तं यावत्कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तं मनुष्यगति नारकगतिं व सेवेत तथा एतावदेव कालपर्यन्तं मनुष्यगतौ नारकगतौ च गमनागमने कुर्यादिति पञ्चमो गमः ५ । 'सो चेत्र उक्कोसकालहिइएसु उचवन्नो' स एव जघन्यस्थितिको मनुष्यो यदा उत्कृष्टकालस्थिति केपु रत्नमभासंबन्धिनारकेषु नारकतयोस्पनो भवेत् । तदा 'एस चेव गमगो' एप एव-पूर्वोक्त एव गमो वक्तव्या, जघन्यकाल स्थितिको मनुष्यो यदि उत्कृष्टकालस्थितिकरत्नप्रभानरयिकेपु उत्पद्यते तदा कियत्कालस्थितिकेतसन्नो भवतीति प्रश्नस्य जघन्यत उत्कृष्टत चापि सागरो. पमस्थितिके पूत्यते इत्युत्तरम् । एव ते मनुष्यास्तत्र नरकावासे एकसमयेन मास पृथवत्व अधिक दश हजार वर्ष तक एवं उत्कृष्ट से 'चल हिंमास पुहुत्तेहिं अन्भहियाई चार मास पृथक्त्व अधिक 'चत्तालीसं वाससहस्साई' चालीस हजार वर्षे तक मनुष्य गति का और नरक गति का सेवन करता है और इतने ही काल तक उसमें गमनागमन करता रहता है। ऐसा यह पांचवां गम है। 'सो चेव कोसकालटिइएस्सु उववन्नो' वही जघन्य स्थितिघाला मनुष्य जब उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले रत्नप्रभा सम्बन्धी नारकों में नोरक की पर्याय से उत्पन्न होता है तो वह 'एस चेव गमो' इस मन्त्र पाठ के अनुसार जघन्य से एक सागरोपम की स्थितिवाले नैरथिको में तथा उत्कृष्ट से भी एक मागरोपम की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ऐसा यही पूर्वोक्त गम यहां कहलेना चाहिये, इसी प्रकारसे અપેક્ષાએ તે જઘન્યથી માસ પૃથકૃત્વ અધિક દસ હજાર વર્ષ સુધી અને ઉત્ક यी 'चहि मासपुहत्तेहिं अमहियाई' या भास पृथत्व मधिल 'चत्तालीसं वाससहस्साई" याजीस २ वर्ष सुधी ते मनुष्य गतिनगन न२४ ગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી તેમાં ગમનાગમન કરે છે. એ પ્રમાણે આ પાંચમે ગમ છે. 'सो चेव उक्कोसकालदिइएषु उववन्नो' ते धन्य स्थितिवाणी मनुष्य ल्यारे ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા રતનપ્રભા પૃથ્વીના નારકેમાં નારકની પર્યાયથી 64-4 थवान योग्य हाय छेतो 'एस चेव गमो' मा सूत्रा8 अनुसार જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષની સ્થિતિવાળા નરથિમાં ઉત્પન્ન થાય છે. એ પ્રમા. ને તે પહેલા કહેલ ગમ અહિયાં કહી લે. એજ રીતે તે નારકાવાસમાં
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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