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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ स०७ मनुष्येभ्यो नारकाणामुत्पत्यादिकम् ५८५ रभ्यधिकानि, चतुःपूर्वकोटयभ्यधिकचतु. सागरोपमपर्यन्तम्, 'एवइयं जाव करेजा' एतावन्तं यावत् कुर्यात् एतावत्कालपर्यन्तं मनुष्यगति नारकगतिं च स सेवेत तथा मनुष्यगतौ नारकगतौ च गमनागमने कुर्यादिति तृतीयो गमः।३। 'सो चेव अप्पणा जहन्नकालहिइभो जाओ' स एव मनुष्यः आत्मना-स्वयं जघन्यकालस्थितिको जातः सन् रत्नप्रभानरकसंवन्धिनारकेषु यदि उत्पद्यन्ते तदा जघन्योत्कृष्टाभ्यां दशवर्षसहस्रस्थितिको भूत्वा उत्पद्यते 'एस चेव वत्तव्यया' एषैव-उपरोक्तपथमगमवक्तव्यतैव सर्वाऽपि वक्तव्या प्रथमगमवदेव शरीरावगाहनादिकं सर्वं वक्तव्यम्, 'णवर इमाई पंव णाणत्ताई' नवरम् इमानि पञ्च नानात्वानि वक्ष्यमाणपञ्चसु विषयेषु प्रथमगमापेक्षया वैलक्षण्यं ज्ञातव्यम् यत्र यत्र लक्षण्यं तत् तत् स्थलं विशिष्य स्व. यमेव सूत्रकारो दर्शयति-'सरीरोगाहणा' इत्यादि, 'सरीरोगाहगा जहन्नेणं अंगुल पुहु' शरीरावगाहना जघन्येन अंगुलपृथक्त्वम्, उत्कृष्टतोऽपि अंगुलपृथक्त्वमेव है और इतने ही काल तक वह उसमें गमना गमन करता है, ऐसा यह तृतीय गम है। 'सो चेव अप्पणा जहन्नकालटिओ' यदि वह मनुष्य स्वयं जघन्य काल की स्थितिवाला होता हुआ रत्नप्रभा सम्बन्धि नारकों में उत्पन्न होता है तो वह जघन्य तथा उत्कृष्ट से दस हजार वर्षकी स्थितिवाले नारकों में उत्पन्न होता है । यहां पर भी वही प्रथम गमोक्त वक्तव्यता पूरी की पूरी कह लेनी चाहिये, परन्तु उसकी अपेक्षा जो इसमें अन्तर है वह 'सरीरोगाहणा' आदि इन, पांच वातों को लेकर है, वही अन्तर कहते हैं-'सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलपुहुत्तं उक्कोसेणं वि अंगुलपुहुत्तं' यहां शरीरकी अवगाहना जघन्य से अंगुलपृथक्त्व है-दो अंगुल से लेकर ९ अंगुल तक की है तथा उत्कृष्ट से भी इतनी ही है, अर्थात् नरक में जानेवाले जीवों की शरीर की अवगाहना-ऊंचाई-जघन्य से अंगुलગતિનું સેવન કરે છે. અને એટલા જ કાળ સુધી તે તેમાં ગમનાગમન કરે છે. એ પ્રમાણે આ ત્રીજે ગમ છે. ' 'सो चेव अप्पणा जहन्नकालटिइओ जामोन ते मनुष्य धन्य जना સ્થિતિવાળો થઈને રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે અહિયાં પણ પહેલા ગમનું કથન પુરેપુરું કહેવું જોઈએ પરંતુ તેની અપેક્ષાથી આ ४थनमा २ मत२ छ, ते 'सरीरोगाहणा' शरीर, साना विगैरे मा पाय स्थानान दान छे.-सरीरागाहणा जहण्णेणं अंगुलपुहुत्तं उक्कोसेणं, वि अंगुल. पुहुत्त' अखियां शरीरनी समाना न्यथा मांग पृथइपनी छ,-मेरो કે બે આંગળથી લઈને ૯ નવ આગળની છે. તથા ઉત્કૃષ્ટથી પણ એટલી જ भ० ६४
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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