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________________ प्रमेयपन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू.७ मनुष्येभ्यो नारकाणामुत्पत्यादिकम् '५०३ • 'सो चेत्र जहन्नकालाहइएस उपवनो' स एव मनुष्यो यदि जघन्यकाल, स्थितिकरत्नपभासंबन्धिनारके पूत्पति तदा जघन्यत उत्कृष्टतश्च दशवर्ष सहस्रस्थितिकपुत्पद्यते, तथा च पर्याप्तसंख्पेयवर्पायुष्कसंज्ञिमनुष्यो यदि रत्नमभासंवन्धि. जघन्यकालस्थितिकेषु उत्पद्यते तदा तस्य जघन्यत उत्कृष्टनश्च दशसहस्रवर्षपमिता स्थितिभवति । जघन्यस्थितिकेपूत्पन्नत्वेन तस्य जघन्यस्थितेरेवाधिकारित्वात् ततो तस्य जघन्या वोत्कृष्टा वा सैव स्थितिरवगन्तव्येति । एवमये उत्कृष्टस्थितिकविषयेऽपि विज्ञेयम्, 'एसचेव वत्तम्भया' एव वक्तव्यता एपैव उपरिप्रदर्शिता सर्वापि वक्तव्यता वक्तव्या, याऽधुना प्रदर्शिता प्रथमगमे, केवलं प्रथम गमवक्तव्यतातो वैलक्षण्यं यत् तदर्शयति-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं कालादेसेणं दसवाससहस्साई मासपूहुत्तमभहियाई' नवरम्-अयं विशेषः कालादेशेन-काला. पेक्षया कालपकारेणेल्यर्थः दशवर्षसहस्राणि मासपृथक्त्वाभ्यधिकानि, द्विमासाप्रकार ऊपर प्रदर्शीत काल पर्यन्त ही वह उस मनुष्प गति में और नरक गति में गमनागमन करता है। ऐसा यह प्रथम सामान्य गम है। 'सोचेवजहन्नकालद्विइएसु उववन्नो' यदि वही मनुष्य जघन्य काल की स्थिति वाले रत्नप्रभा लम्बन्धी नारकों में उत्पन्न होता है तो वह जघन्य तथा उत्कृष्ट से दस हजार वर्षकी स्थितिवाले नारकों में उत्पन्न होता है यहां पर भी वही उपर्युक्त वक्तव्यता सर्वरूप से कह लेनी चाहिये, जो अभी प्रकट की गयी है, इस वक्तव्यता रूप प्रथम गम से इसमें जो विशेषता है उसे सूत्रकार स्वयं 'नवरं' इस सूत्र पाठ द्वारा प्रगट करते हैं-नवर कालादेसेणं दसवाससहस्साई मासपुहुत्तमम्भहियाई' यहां काल की अपेक्षा मासपृथक्त्व से अधिक दश हजार वर्ष तक वह ઉપર બતાવેલ કાળ સુધી જ તે એ મનુષ્ય ગતિમાં અને નરક ગતિમા ગમના ગમન કરે છે. આ પ્રમાણે આ પહેલે સામાન્ય ગમ છે. 'सो चेव जहन्नकालदिइएसु उववन्नो ते १ मनुष्य धन्य जना સ્થિતિવાળા રત્નપ્રભા સંબધી નારમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે અહિયાં પણ તે ઉપર કરેલ કથન સમગ્રપણે કહી લેવું જે હમણું જ પ્રગટ કરેલ છે. આ કથન રૂપ પહેલા ગામથી આ કથનમાં જે ફેરફાર છે, તે સૂત્રકાર સ્વયં 'नवर' मा सूत्राथी प्रगट ४२ छे. 'नवरं कालादेसेणं दसवाससहस्साई मास पुहुत्तमम्भहियाई' मणिनी अपेक्षा धन्यथी मास इत्पथी વધારે દસ હજાર વર્ષ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી તે ચાલીસ હજાર વર્ષ અધિક
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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