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________________ ધ્રુવે भगवतीं सर्व निकः जघन्यकालस्थितिकनैरथिकेषु समुत्पन्नो भवेत् 'सच्चेत्र लद्वी संवेदो त्रि तहेव सत्तमगमस रिसो' सैन लब्धिः संवेधोऽपि तथैव सप्तगमसदृशः, एतत्मकरणस्य सप्तमगमदेव सर्वत्रापि वक्तव्यमित्यष्टमी गमः ८। 'सो चैत्र उक्कोसकाळद्विसुवचन्नो०' स एव स्वयमुत्कृष्टकालस्थितिकः संज्ञिपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको जीवः उत्कृष्टकालस्थिविकसप्तमपृथिवी संवन्धिनैरविकरूपेण उत्पन्नः 'एस चैव ली जात्र अणुबंध त्ति' पैव द्विर्यावदनुबन्ध इति एषा - पूर्वोक्तव वक्तव्यता अनुवन्धपर्यन्ता सर्वापि इहवक्तव्येति । 'मवादेसेणं जहन्नेणं तिन्नि भवग्गहणाई' भवादेशेन भवमकारेण भवापेक्षयेत्यर्थः त्रीणि भवग्रहणानि, 'उक्कोसेण पंचभवगहणाई' उत्कर्षेण पञ्चभवग्रहणानि भवद्वयं मत्स्यस्य, भवमात्रं नारकस्येत्येवं जघन्येन भवत्रयं भवतीति । उत्कृष्टतो भवत्रयं मत्स्यस्य, भवद्वयं च नारकस्य पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव जघन्य काल की स्थिति वाले सातवीं पृथिवी के नैरमिकों में उत्पन्न होने के योग्य है - तो 'सच्चेव लद्वी संवेहो वि तहेब सत्तमगमसरिलो 'यहाँ पर वही लब्धि और संवेध सातवें गमक के जैसा कह लेना चाहिये । ऐसा यह आठवां गम है । --- यदि - ' सो चेव उक्कोस कालहिरएस उववन्नो.' वही उत्कृष्ट काल की स्थितिवाला संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले सप्तम पृथिवी के नैरथिक रूप से उत्पन्न होता है तो यहां पर 'एस चेत्र लद्वी जाव अणुबंधोत्ति' यही पूर्वोक्त वक्तव्यता सब यावत् अनुबन्ध तक कह लेनी चाहिये, 'भवादेसेणं जहन्नेणं तिन्निभवगहणाई' भव की अपेक्षा यहां जघन्य से तीन भवों को ग्रहण करने तक और 'उक्कोसेणं पंचभत्रगहणाई' उत्कृष्ट से पाँच भवों को ग्रहण સ્થિતિવાળ' સાતમી પૃથ્વીના નૈયિકમાં ઉત્પન્ન થવાને ચૈન્ય હાય તા ‘સચેવ हृद्धीं संवेशेवि तहेव सत्तमगम परियो' मडियां ये सम्धि मने संवेध સાતમા ગમ પ્રમાણે કહેવા જોઈએ આ પ્રમાણે આ આઠમે ગમ છે, ૮ જે 'सो चैत्र उकासका लट्ठिइएस उवत्रन्नो०' त्सृष्ट अजनी स्थितिवाणी भेवेोते સજ્ઞી પચેન્દ્રિય તિયાઁચ ચૈનિક વળા જીવઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા સાતમી पृथ्वीना नैरयिष्ठ ३ये उत्पन्न थाय छे तो अडियां 'एस चैव लद्धी जाव अणुब'धोत्ति' मा यूवात तमाम अथन याश्त् अनुगंध सुधी हेही बेवु. 'भवादसेणं जहणेणं तिन्नि भवगहणाई' लवनी अपेक्षाथी भरियां धन्यथी शु भवाने थंडेषु ४रता सुधी भने 'उक्के से पंचभवगहणाई' उत्कृष्टथी पांथ
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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