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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू०६ पर्याप्तकसंक्षिपतिरश्चां ना. उ.नि० ४६५ युष्कसंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकस्तागतिर्यग्गतिं शर्करामभानारकगति च सेवेत तथा एतावदेव कालपर्यन्तम् उमयत्र स्थाने गमनागमने कुर्यादितिभावः ।१। 'एवं रयणप्पमा पुढवीगमसरिसा णव वि गमगा भाणियवा' एवं रत्नममापृथिवी गमसदृशा नवापि गमा भणितव्याः रत्नपभानारकपृथिवीपकरणे यथा यथा प्रथमादिगमा कथिता स्तथैव इहापि शर्करा प्रमायामपि नव गमाः वक्तव्याः, रत्नप्रभाः पेक्षया यद्वैवलक्षण्यं तदर्शयति-'णवरं' इत्यादि, 'णरं सध्वगमएसु वि नेरइयठिइ. संवेहेसु सागरोवमा भाणियन्या' नवरं सर्वगमकेषु अपि नैरपिकस्थितसंवेधेषु सागरोपमा भणिसव्या रत्नप्रभापृथिव्यां नारकाणाम् स्थितिद्वारे संवेधद्वारे च जघन्यतो दशसहस्त्र वर्षाणि कथितानि, उत्कृष्टतः सागरोपमं कथितम् काल तक तादृशतिर्यग्गति का और शर्करा प्रभा नारक गति का सेवन कर सकते हैं और इतने ही काल तक दोनों स्थानों में गति आगति कर सकते हैं। 'एवं रयणप्पभा पुढवीगमसरिसा णव वि गमगा भाणियव्वा इस प्रकार से रत्नप्रभा-पृथिवी के प्रकरण में जैसे नव गमक कहे गये है उसी प्रकार से वे नवों गमे यहां शर्कराप्रभा में भी कहना चाहिये, अब सूत्रकार रत्नप्रभा की अपेक्षा जा मिलता है यहां उसे प्रगट करते है-'णवरं' इत्यादि-'नवरं सव्वगमएसु वि नेरइयठिा संवेहेस सागरोषमा भाणियव्वा इसके द्वारा वे यह समझाते हैं कि समस्त गमकों में यहां नैरयिक की स्थिति और संवेध में 'सागरोपम' इस शब्द का प्रयोग करना चाहिये, अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी में नारकों की स्थिति द्वार में और संवेध द्वार में जघन्य से दश हजार वर्ष और उस्कृष्ट से रवीना न॥२४५४ा सेवन ४२ छ. 'एवं रयणप्पभापुढवीगमसरिसा गंव गमगा भाणियव्वा' का शते २नमा पृथ्वीना शुभ प्रभारी न અમે કહ્યા છે તે જ પ્રમાણેના તે નવગમે અહિં શર્કરા પ્રભામાં પણ કહી an . હવે સૂત્રકાર રત્નપ્રભાની અપેક્ષાએ જે ભનપણુ છે, તે અહિયાં પ્રગટ -णवर' या 'णवरं सवगमएसु वि नेरइयट्टिइय संवेहेसु सागरोपमा भाणियव्वा' मा सूत्रपा । सूत्राने समाव छ है-सपा ममा गलिया नैयिनी स्थिति भने सविधभा 'सागरोवम' मा शहने। प्रयोग કરવો જોઈએ—અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નારકેની સ્થિતિદ્વારમાં અને સંધ દ્વારમાં જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષ અને ઉત્કૃષ્ટથી એક સાગરોપમ એ પ્રસાર भ०५९
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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