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________________ ૨૨ 'भगवतीसमे निकाः खल जीवाः 'एसमए' एकसमयेन एकस्मिन् समये इत्यर्थः 'केवइया' क्रियन्तः कियत्संख्यकाः 'उववज्जंति' उत्पद्यन्ते रत्नप्रभायामिति प्रश्नः । उत्तरमाह - ' जहेव असन्नी' यथैवासंज्ञिनः, अमंज्ञिजीवानां यथोत्पत्तिः प्रदर्शिता तथैव संज्ञिनामपि तत्तत्संख्पाकश्वेन उत्पत्तिर्द्रष्टव्या । तथाहि - जघन्येन एको वा द्वौ बा यो वा उत्कर्षेण संख्याता वा असंख्याता वा एकस्मिन् समये जीवाः से रहनममापृथिव्यां समुत्पद्यन्ते इति, 'तेसि भंते ! जीवान' तेपां पर्याप्तसंख्येय वर्षायुष्कसंज्ञिपश्चेन्द्रियतियग्योनिकानाम् खलु भदन्छ जीवानाम् 'सरीरगा' शरीराणि 'किं संघयणी पन्नत्ता' कि संहननानि कीदृशसंहननविशिष्टानि प्रज्ञप्तानि गौतम ! वह जघन्य से दश हजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है । और उत्कृष्ट से एकसागरोपम की स्थितिवाले नैरfusों में उत्पन्न होता है । अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'ते णं भंते ! जीवा' हे भदन्त ! संज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव एक समय में 'केवइया उववज्जंति' रत्नप्रभा में कितने उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं' जहेव असन्नी' हे गौतम ! जिसप्रकार से असंती जीवों की उत्पत्ति दिखलायी गयी है उसी प्रकार से संज्ञी जीवों की भी उस संख्या से उत्पत्ति जाननी चाहिये, जैसे- रत्नप्रभा पृथिवी में एक समय में वे जीव जघन्य से एक अथवा दो अथवा तीन तक उत्पन्न होते हैं और उत्कृष्ट से संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते है । प्र० - 'तेसि णं अंते! जीवाणं सरीग्गा कि संघयणी पन्नत्ता' हे भदन्त | उन पर्याप्त संख्यात वर्षायुष्क, संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक वमट्ठिइएस उबवज्जेज्जा' हे गौतम ते धन्यथी इस इन्नर वर्षनी स्थिति વાળા નૈયિકામાં ઉત્પન્ન થાય છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી એક સાગરોપમની સ્થિતિથાળા નૈચિકામાં ઉત્પન્ન થાય છે. હવે ફરીથી ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવુ' पूछे छे है-'ते णं भंते ! जीवा' हे भगवनू सज्ञी यथेन्द्रिय तिर्यन्य योनिवाजा ते वो मे समयभां 'केवइया उववज्ज'ति' रत्नअला पृथ्वीमां डेटला उत्पन्न थाय छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अलु उडे छे - जहेत्र असन्नी' के ગૌતમ ! અસની જીવાની ઉત્પત્તિ જે પ્રમાણે બતાવવામાં આવી છે, એજ રીતે સત્તી જીવાની ઉત્પત્તિ પણ તે તે સખ્યાથી સમજવી. જેમકે-ન પ્રભા પૃથ્વીમાં એક સમયમાં તે જીવ જઘન્યથી એક અથવા ખે અથવા ત્રણ સુધી ઉત્પન્ન થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી સખ્યાત અથવા અસંખ્યાત ઉત્પન્ન भाय के प्र० तेसिं णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किं सघयणी पन्नत्ता' हे भग
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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