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________________ चन्द्रिका टीका श०२४ उ. १ सू०४ जघन्यस्थितिकनै रयिकाणां नि० ४०७ उत्कर्ष काल स्थितिकपर्याप्ता संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः प्रथमम् अभवत् तदनन्तरंतिर्यग्योनिनो मृत्वा 'क्कोस काल डिइयरयणप्पमापुढ विनेरइए' उत्कर्ष काल स्थितिरत्नप्रभा पृथिवी संबन्धिनैरयिकोऽभवत् तदनन्तरं तादृशनरकावासात् निःसृत्य 'पुणरत्रि' पुनरपि 'उक्कोस कालडियपजत असनिपनि दियतिरिक्खजोगिए' उत्कृष्टकाल स्थिति पर्याप्तासंज्ञिपश्ञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकोऽभवत् त्ति' इति - एव क्रमेण 'केवइयं कालं सेवेज्जा' कियत्कालपर्यन्तं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिं नरकगतिं च सेवेत, 'केवर्यं कालं गहराई करेज्जा' कियत्कालपर्यन्तं गत्यागती - गमनं चागमर्न च कुर्यादिति प्रश्नः । भगवान् उत्तरमाह - 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवादेशेन - भवमकारेण 'दो भवग्गाहणाई' द्वे भवग्रहणे भवद्वयग्रहणम् प्रथमभवे उत्कृष्टकालस्थितकपर्यावास ज्ञि पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक हातो द्वितिये भवे रत्नम मापृथिवीनारको जातः, aat नरकान्निःसृत्य नियमतः संज्ञित्वमेव लभते नत्वसंज्ञित्वमत एव कथ्यते भवादेशेन भवद्वयग्रहणमिनि । 'काळादेसेणं' कालादेशेन - कालप्रकारेण काळापेक्षया इत्यर्थः ' जहन्ने' जघन्येन 'पलि मोत्रमस्स असंखेज्जइभागं पुण्त्रकोडीए अन्मभदन्त ! जब जीव पहिले उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च होता है और फिर वह वहां से मरकर 'उक्कोसकालडिय०' उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला रत्नप्रभा पृथिवी का नैरfuक होता है, और फिर इसके बाद वह वहां से निकल कर 'उक्कोसकालट्ठियपज्जत असन्निपचिदियतिरिक्खजोणिए' उत्कृष्ट की स्थिति वाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च हो जाता है - तो इस क्रम से वह 'केवइथं कालं सेवेज्जा, केवइयं कालं गहराई करेज्जा' कितने काल तक पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनि का और नरक गति का सेवन करता है और कितने काल तक इस प्रकार से वह गमनागमन करता है ? उत्तर में भगवान् गौतम से कहते हैं - 'गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहअसज्ञी पथेन्द्रिय तिर्यय होय है, अने ते पछी त्यांथी भरीने 'उक्कोसकाकालट्ठिइय०' उत्सृष्टजनी स्थितिवाजा रत्नअसा पृथ्वीनेो नैरयि थाय छे याने ते पछी त्याथी नीउणीने 'उक्कोसकालट्ठिइय पज्जत्तअसन्निप चिदियति रिक व्रजोणिए' उत्ष्ट अजनी स्थितिवाजा पर्याप्त असं ज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यय यह भय छे तो मा उभथी ते 'केवइयं काल सेवेज्जा येवइयं कालं गइरागइ करेज्जा' टसा आज सुधी यथेन्द्रिय तिर्यय येोनिनु भने ना२४ અતિનુ સેવન કરે છે. અને કેટલા કાળ સુધી આ પ્રકારથી તે ગમના ગમન -અવર જવર કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ભગવાન ગૌતમસ્વામીને કહે છે S - 'गोयमा ! भवादेसेणं देा भवग्गहणाइ, कालादेसेण जहणेणं पलिओ वमस्स काल
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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