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________________ ફ્ટટ भगवतीसूत्रे संज्ञित्वमेव लभते न पुनरसंज्ञित्वम् अतो भयमेव भक्तीति । 'कालादे सेण' कालादेशेन - कालप्रकारेण कालत इत्यर्थः, 'जहन्नेणं दसवामसम्माई अंतोमुत्तमन्वहियाई' जघन्येन दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, 'उक्कोसेणं' उत्कर्पेण 'पलिओनमस्स असंखेज्जहमागं अंतोमुहुत्तमसहियं' पल्योपमस्यासंख्येयभागमन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकम् अन्तर्मुहूर्त्तादिधिकपल्योपमस्यासंरूपात भागमित्यर्थः, 'एवइयं कालं सेवेज्ना' एतावत्कं कालं पर्याप्तासंज्ञिपश्चेन्द्रिय तिर्यग्गतिं च सेवेत तथा - 'एवइयं कालं गहरागई करेज्जा' एतावत्कालं गयागती - गमनागमने कुर्यादिति ४ ॥ 'जन काळ हिश्यपज्जत असन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए गं भंते !' जघन्यकालस्थितिकपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः खलु भदन्त ! 'जे भविए' यो भव्यः 'जन्नकालट्ठिएस' जघन्यकावस्थितिकेषु 'स्यणप्पभा पुढवि नेर' रत्नपमा पृथिवी संबन्धिनैरयिकेषु 'उचवज्जित' उत्पत्तुम्, 'से र्णं की अपेक्षा से वह दो भवग्रहण तक और' कालादेसेणं' कारकी अपेक्षा से वह 'जनेणं' जघन्यसे' दसवास सहस्साई अतोमुत्तमम्भहियाई' अन्तर्मुहूर्त्त अधिक दस हजार वर्ष तक और 'उक्कोसेणं' उत्कृष्ट से ''पलिओ मस्स असंखेज्जद्भागं तोमुसमम्भहियं' अन्तर्मुहूर्त्त अधिक पयोम के असंख्यातवें भाग तक गमनागमन करता है-उस गति का सेवन करता है, दो भवग्रहण सम्बन्धी कथन ऊपर में प्रगट 'किया जा चुका हैं अब गौतम प्रभु से पूछते हैं- 'जहन्नकालट्ठिय पज्जत्त असंन्निपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते' जघन्य काल की स्थितिवाला पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्च' 'जे भविए जद्दन्नकालि एल, रयणप्प भापुढविनेरइएस उववज्जिसए जो जघन्यकाल की स्थिति वाले रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिकों में उत्पन्न होने के योग्य है 'से णं भंते । देसेणं' अजनी अपेक्षा मे ते 'जहन्नेण' धन्यथी 'दसवास सहरसाई अंतोमुहुत्तमव्भहियाइ' म'तमुहूर्त अधिक इस डेन्जर वर्ष सुधी अने 'उक्कोसेणं' अत्युष्टथी 'पलि ओवमस्स असंखेज्जइभागं अतो मुहुत्तमन्मयाहिइ' अन्तर्भुहूर्तमधि यस्थाઅસ`ખ્યાતમા ભાગ સુધી ગમનાગમન કરે છે. અર્થાત્ તે ગતિનું સેવન કરે છે—આ પ્રમાણે એ ભવ સબધી કથન કરવામાં આવ્યુ છે. પમના हवे गीतभस्वामी अलुने भेवु' 'जहन्नकालट्ठिइय पज्जच असन्निपंचिदियतिरिक्तजानिए णं भवे !' हे लहन्त धन्य अजनी स्थितिवाजा पर्याप्त मसंज्ञी यथेन्द्रिय तिर्यय 'जे भविए जहन्नकालट्ठिइएस रयणप्पभापुढत्रिने रइए उत्रत्रज्जित्तए' ? कुत्र धन्यगजनी स्थितिवाजा रत्नअला पृथ्वीना
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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