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________________ ३७२ - ___ भगवतीमत्रे रवि पज्जत्तअसन्निपंचिंदियतिरिवखनोणिए' पुनरपि पर्याप्तासंक्षिपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिको भवेत् । एवं क्रमेण पूर्व पर्याप्ता संज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकस्ततोमृत्वा रत्नपभानरके नारको जातः, पुनरपि नरकान्निःसत्य तामेव पर्याप्तासंशिपश्चेन्द्रियतिर्यग्गतिमासादयेत् , एवं रूपेण 'केवइयं कालं सेवेज्जा' कियत्काल. पर्यन्तम् तां गति सेवेत 'केवइयं कालं गइरागई करेजा' कियन्तं कालं गत्यागती कुर्यात्-गमनं चागमनं च कुर्यात् इति गस्यागतिविषयका प्रश्नः । भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'भवादेसेणं' भवादेशेन-भवप्रकारेण 'दो भवग्गहणाई द्वे भवग्रहणे एकत्रासंज्ञी द्वितीयभवे नैरयिका, नरकानिर्गतः सन् अनन्तरतया संज्ञित्वमेव लभते न पुनरसंशित्वम् अनो भवद्वयमेव कथितम् । 'कागदेसेणं' कालादेशेन-कालप्रकारेण कालतः 'जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहु. होकर पश्चात् 'जहन्नकालहिए रयणप्पभा पुढविनेरइए' जघन्य कालकी स्थितिवाले रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिकों में उत्पन्न हो जाता है, और 'पुणरवि पज्जत्तभसन्निपंचिंदियतिरिक्ख. जोगिए' यादमें वहांसे भी मरकर पुनः पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्च हो जाता है, तो इस प्रकारसे वह कितने काल तक उस गतिका सेवन करता है-अर्थात् कितने काल तक वह इस प्रकारसे गति और आगति करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं-गोयमा! भवादेसेण' हे गौतम ! भवकी अपेक्षा वह 'दो भवग्गहणाई दो भव ग्रहण तक-एक असंज्ञीका भव और द्वितीय नारक का भव-इस प्रकार से दो भवों को ग्रहण करने तक-क्योंकि इसके बाद वह नियम से संज्ञी हो जाता है-असंज्ञी नहीं रहता 'कालादेसेणं जहन्नेणं दसवाससह स्लाइं अंतोमुत्तमम्भहियाई' कालकी अपेक्षा से वह जघन्य रूप में ન્યકાળની સ્થિતિવાળા રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકોમાં ઉત્પન થાય છે અને । 'पुणरवि एज्जत्तसन्निपचिदियतिरिक्खजोगिए' ते पछी त्यांथी पर भशन ફરીથી પર્યાપ્ત અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ થઈ જાય છે. તે આ રીતે કેટલા કાળ સુધી ગતિ અને આગતિ-આવજા કરે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु गौतमस्वाभान । छ -'गोयमा ' भवादेसेणं' गीतम सपनी मये. क्षात 'दा भवगाहणाई' मे स ह सुधी- 23 मसज्ञान नभन બીજે નારકને ભવ આ રીતે બે ભવેનું ગ્રહણ કરતાં સુધી કેમકે તે પછી नियमथी ते सज्ञी जनय छे मसी नही. 'कालादेसेणं दसवाखसहस्साई अंतोमुहत्तमभहियाई' न भक्षा त धन्यथी मतभुत मधि इस
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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