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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२३ व. ५ माषपर्ण्यादिवनस्पत्युत्पादादिनि० ३३५ अत्र सर्व प्रश्नोत्तरादिकम् आलुकदयदेव ज्ञातव्यम् एवं मूलोदेशकवत् कन्दस्कन्धस्व शाखा वालपत्रपुष्पफलवीजान्तादशाऽपि उद्देशकाः पूर्ववदेव ज्ञातव्याः ' परन्तु देवः कस्मिन्नपि उद्देशके नोत्पद्यन्ते इति वंशवर्गवदवगन्तव्यम् । ' एवं एस्थ afaadaari उद्देगा भाणियच्चा' एवमुपर्युक्तवर्णितक्रमेण पश्चस्वपि वर्गेषु पश्चात् उद्देशका भणितव्याः, प्रत्येकवर्गे मूलादिका बीजान्ता दश दश उद्देशा भवन्तीति पञ्चानां दश संख्यया गुणने पञ्चाशद्भवन्ति । 'सव्वस्थ देवाण उववज्जंति' सर्वत्रापि सर्वोद्देदाकेषु मूलादारभ्य वीजान्तपर्यन्तेषु देवानाम् उत्पत्तिर्न भवति वंशवदेवेति विशेषः, 'विन्नि लेस्साओ' तिस्रः कृष्ण नीलकापोतिका लेश्या भवन्ति अन्यत्सर्वम् आलुकवर्ग तदन्तर्गत वंशकवर्ग तदन्तर्गत शालिकवर्गव देव द्रष्टव्यम् | 'सेवं भंते ! सेत्र भंते! ति' तदेवं भदन्त । तदेव भदन्त ! वर्ग में आलकवर्ग के जैसा ही प्रश्नोत्तर आदि जानना चाहिये मूलोदेशक के जैसा ही कन्द्र, स्कन्ध, स्वक्, शाखा, प्रचाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज ये सब उद्देशक कहना चाहिये परन्तु देव किसी भी उद्देशक में उत्पन्न होता नहीं कहा गया है । अतः इस वर्ग को वशवर्ग के जैसा ही जानना चाहिये ' एवं एत्थ पंचसु वि वग्गे पन्नासं सगा भणियव्वा' यहां प्रत्येक वर्ग में मूल से लेकर बीजपर्यन्त दश दश उद्देशक होते हैं - इस प्रकार से पांच वर्गों के कुल उद्देश पचास हो जाते हैं। यहां किसी भी वर्ग में मूलादिक दश उद्देशों में देवों की उत्पत्ति नहीं कही गई है। अतः वंशवर्ग के जैसे ही यहां तीन लेश्याएँ होती हैं। बाकी का और सब कथन आलुकवर्ग के अन्तर्गत वंशकवर्ग एवं वंशकवर्ग के अन्तर्गत शालिकवर्ग के जैसा " પ્રમાણે પ્રશ્નોત્તર વિગેરે સમજવા. મૂળાશકમાં કહ્યા પ્રમાણે કદ, ૩, त्वडू, शाखा, अवास, पत्र, पुष्य, ईज भने जी आ मधा उद्देशाओ डी લેવા. પરંતુ આ માષપણી વર્ગમાં કાઈ પણ ઉદ્દેશામાં દેવાની ઉત્પત્તિ કહી नथी. मेथी या वर्ग वंशवर्ग अभाये न सभवा. 'एवं एत्थ पंचसु' वि वग्गेषु पन्नास' उद्देस्रगा भाणियव्वा'- मडियां दृरे वर्गमां भूजथी सहने जी?, સુધીના દસ દસ ઉદ્દેશાઓ થાય છે, એ રીતે પાંચ વના કુલ પચાસ ઉદ્દેશાએ થઈ જાય છે, અહિયાં કાઈ પણુ વગ'માં મૂળ વિગેરે દસ ઉદ્દેશા આમાં દેવાની ઉત્પત્તી કહી નથી. જેથી વશ વર્ગ પ્રમાણે જ અહિયાં ત્રણ વૈશ્યા કહી છે. ખાકીનુ તમામ કથન લુક વર્ગના અંતગ ત વવગ
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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