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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२३ व.४ पाठादिवनस्पतिकायजीवोत्पत्यादिनि० ॥ कथितं यद् देवो न कुत्रापि उत्पद्यते अतः पाठावर्गोऽपि ऐन वक्तव्यम् यद् मला. दारभ्य बीजपर्यन्तं कुत्रापि देवो नैव उत्पद्यते इति एवं लेश्यादिका सर्वेऽपि शालिकवर्गवदेव वक्तव्याः । पाठामृगवालंकीप्रभृति वनस्पतीनां मूलतया उत्पधमानजीवानां तिस्प एच लेश्याः कृष्णनीलकापोतिका वक्तव्याः तत्र देवोत्पत्तरभावत् । आलुकवर्गापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदर्शयति 'नवरं' इत्यादि 'नवरं ओगाहणा जहा बल्लीण' नवरमवगाहना-यथा वल्लीनाम् फलोदेशेऽवगाहना जघन्येन अगुलस्यासंख्येयभागम् उत्कृष्टतो धनुःपृथक्त्वम् द्विधनुरारभ्य नवधनु:पर्यन्तम् इति, 'सेसंत चेव' शेषं यईलक्षण्यं कथितं तदतिरिक्तं स्थित्यादिक तदेव आलुकवर्गवदेष, आलुरुवर्गे स्थितिविषये कथितम् एवम् स्थितिजघन्येनापि नहीं कही गई है इसलिये पाठावर्ग में भी ऐसा ही कहना चाहिये कि देवो की उत्पत्ति कहीं पर भी नहीं होती है। इसी प्रकार से लेश्यादिक समस्त द्वार भी शालिक वर्ग जैसा कहना चाहिये पाठा, मृगवालु की आदि वनस्पतिकायिक जीवों के जो कि उनके मूलादिरूप से उत्पन्न हुए हैं तीन ही कृष्णादिकलेश्याएँ होती हैं। क्योंकि उनमें देवों की उत्पत्ति नहीं होती है आलुकवर्ग की अपेक्षा से जो भिन्नता है उसे स्वयं सूत्रकार ने 'नवरं आदि पाठ द्वारा इस प्रकार से प्रदर्शित किया है कि-अवगाहना द्वार का कथन यहां बल्ली के जैसा करना चाहिये-फलोद्देशक में अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण कही गई है और उत्कृष्ट से धनुः पृथक्त्व कही गई है 'सेसतं चेव' इस भिन्नता के अतिरिक्त और सच कथन यहां आलुकवर्ग के जैसा ही है आलुकवर्ग में स्थिति के विषय में ऐसा कहा गया है कि તે કોઈ પણ સ્થળે દેવેની ઉત્પત્તિ કહી નથી તેથી પાઠા વર્ગમાં પણ એજ પ્રમાણે કહેવું જોઈએ કે- દેવોની ઉત્પત્તિ કયાંય થતી નથી. એ જ રીતે લેશ્યા વિગેરે સઘળા દ્વારા પણ શાલીવ પ્રમાણે કહેવા જોઈએ. પાઠા, મૃગવાલુંકી વિગેરે વનસ્પતિકાયિક જીવોને કે જેઓ તેઓના મૂળ વિગેરે રૂપથી ઉત્પન્ન થયા હોય છે. તેઓને કૃષ્ણાદિ ત્રણ જ વેશ્યાઓ હોય છે, કેમકે તેમાં દેવની ઉત્પત્તિ થતી નથી આલુક વર્ગની અપેક્ષાએ જે ફેરફાર छ, ते स्वय सूत्रारे 'नवरं' विगैरे ५४ द्वारा 20 शते मताव छ,४'सान द्वारतुं थन मडीया 'पीनाथन प्रभारी ४२ मेंફળાદેશામાં અવગાહના જઘન્યથી આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણની ४ी छ. म Greयी धनु:यत्वनी xsी छ, 'खेस त चैव' मा ५२
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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