SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमैन्द्रिका टीका श०२३ व. १ आलुकादिवनस्पति काय जीवोत्पत्त्यादिनि० ३१९ सेणं संखेज्जा असंखेज्जा वा अनंता वा उववज्जंति' उत्कर्षेण संख्याता असंख्याता वा, अनन्ता वा समुत्पद्यन्ते । 'अवहारो गोयमा ।' अपहारी गौतम ! 'ते अनंता' ते खलु अनन्ताः जीवाः 'समए समए' समये समये - प्रतिसमयम् अवीरमाणा अवहीरमाणा' अपह्रियमाणाः २ - निःसार्यमाणा, २ इत्यर्थः 'अणंवाहि' अनन्ताभिः 'उस्सप्पिणीहिं ओसप्पिणीहिं' उत्सर्पिणी भिरवसर्पिणीभिः 'एवइकाले अवहीरंति' एतावत् कालेनानन्तोत्सर्पिण्यात्मकेनापि अपह्रियन्ते facette ते 'नो चेवणं अवहरिया सिया' नैव खलु अपहृताः स्युः, एतावन्महता कालेनन्तानां जीवानां प्रतिसमयमपि यदि निष्काशनं कुर्यात् तदपि अशेषतो निष्काशनमशक्यमेवेति भावः । 'ठिइ जहन्नेण वि उनको सेण चि अतोमुहुत्तं' आलुकमूलमूलादिजीवानां स्थितिर्जघन्येनापि उत्कर्षेणापि अन्तर्मुहूर्तमेव ' सेसं तं चैव' शेषं तदेव यद्वैलक्षण्यं तद्दर्शितम्, तदतिरिक्तं सर्वमपि वंशवर्गीय मूलकप्रकरणवदेव _ द्वारा सूत्रकार प्रकट करते हैं - इसका परिमाण जघन्य से एक समय में एक, दो अथवा तीनतक है और उत्कृष्ट से संख्यात और अनन्त तक है अर्थात् एक समय में कम से कम १ से लेकर तीनतक जीव वहां उत्पन्न होते हैं और अधिक से अधिक संख्यात एवं असंख्यात अनन्त तक उत्पन्न होते हैं । 'अवहारो गोयभा०' हे गौतम ! इनके अपहार का प्रमाण इस प्रकार से है-जो वे अनंतजीव प्रत्येक समय में यहां से निकाले जायें और इस प्रकार करते २ अनन्त उत्सर्पिणीकाल और अनन्त अवसर्पिणी काल व्यतीत हो जावें तब भी वे वहां से पूरे नहीं निकाले जा सकते हैं । 'ठिई जहन्नेणं दि०' इनकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त्त की होती है 'सेस तंचेव' बाकी का और सब कथन वंशवर्ग के जैसा ही जानना चाहिये जिस प्रकार से यह कथन એક, બે, અથવા ત્રણ સુધી છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી સખ્યાત અથવા અસખ્યાત સુધી છે. અર્થાત્ એક સમયમાં આછામાં ઓછુ ૧ થી લઈને ત્રણ સુધીના જીવા ત્યાં ઉત્ત્પન્ન' થાય છે, અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાત અને અસખ્યાત सुधी उत्पन्न थाय छे, 'अवहारो गोयमा०' हे गौतम! आना 'थारબહાર નિકળવાનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે, ને તે અનંત જીવા પ્રત્યેક-એક એક સમયમાં ત્યાંથી બહાર મહાડવામાં આવે અને આમ કરતાં કરતાં અનંત ઉત્સર્પિણી કાલ અને અનંત અવસર્પિણી કાલ વીતી જાય તે પણુ तेथे त्यांथी पूरेपूरा महार हाडी शमता नथी. 'ठिई जहन्नेणं वितेमानी उत्ष्ट भने धन्य स्थिति मे मतिर्मुहूर्तनी होय छे, 'सेसं तं 'चेव' ખાકીનું ખીજું તમામ કથન વશવ પ્રમાણેં જ સમજવું, જે પ્રમાણે આ
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy