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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श ० २१ व. १ उ०१ औषधिवनस्पतिशाल्यादिगतजीवनि० २१७ मूलस्थितजीवानां यावत्पदना ह्या काय - तेजस्काय - वायुकाय - वनस्पतिकार्य-द्वित्रि- चतुरिन्द्रिय- पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक- मनुष्यजीव रूपेणोत्पत्तिः पुनरपि तरच शाल्यादिमूलजीवतयोत्पचि र्भवति, तत्र स्थिति त्यागतिश्च यावत्कालं भवति, तस्सर्वमेकादशशत कम उमथ मोत्पलोद्देश फकथितालापकपकारेण अवगन्तव्यम् । तथाहि - अष्काय - तेजस्काय-वायुकापजीवस्त्रेषु पृथिवीकाययावत् ते अष्कायादयो जीवाः भवादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे, उत्कर्षेण असंख्यातानि भवग्रहणानि, काळादेशेन जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहूर्त्तो उत्कर्षेण असंख्यातं कालं यावत् तत्र तिष्ठन्ति, गत्यागति कुन्धि । वनस्पतिजीवस्तु जघन्येन द्वे महणे' उत्कर्षेण अनन्तानि भवग्रहणानि, काछादेशेन जघन्येन द्वौ अन्तत उत्कर्षेण अनन्तें कालं वनस्पतिकालं यावत् स्थिति गमनागमनं च करोति । द्वीन्द्रियजीन्द्रियपुनः वे शालि आदि के मूल के जीवरूा से उसन्न होते हैं तो इस हालत में वहां उनकी स्थिति और गयागति किनने समय तक रहती है। यह सब ग्यारहवें शतक के प्रथम उत्पन्न उद्देशक में कथित आलाप प्रकार इस प्रकार से है-अकाय, तेजस्काय और वायुकाय 'जीव संबंधी जो सूत्र है उनमें पृथिवीकाय के जैसे वे अकावादिक जीव भवकी अपेक्षा जघन्य से दो अवग्रहण तक और उत्कृष्ट से असंख्यात भवग्रहणतक रहते हैं काल की अपेक्षा - जघन्य से दो अन्तर्मुहततक और उत्कृष्ट से असंख्यात काल तक रहते हैं और गमनागमन करते रहते हैं । वनस्पतिजीव तो जचन्य से दो भवग्रहणतक और उत्कृष्ट से अनन्तभवग्रहणतक वहां रहता है और गमनागमन करता रहता है। काल की अपेक्षा जघन्य से दो अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट से अनंत "" e અને ફરી તે શાલી વિગેરેના મૂળમાં જીવરૂપથી ઉત્પન્ન થાય છે, તા.આ હાલતમાં ત્યાં તેઓની સ્થિતિ અને અવર જવર કેટલા સમય સુધી રહે છે? આ તમામ કથન અગીયારમાં શતકના પહેલા ઉત્પલ ઉદ્દેશામાં કહેલ આલાપકના પ્રમાણે સમજવા તેના પ્રકાર આ પ્રમાણે છેઅસૂકાય તેજસ્કાય, અને વાયુકાય જીવસ બધી જે સૂત્ર છે, તેમાં પૃથ્વીકાયની માફક તે અકાય વિગેર ભવની અપેક્ષાએ જઘન્યથી એ ભવ ગ્રહણ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી અસ`ખ્યાત લવ થહેણુ સુધી ત્યાં રહે છે. અને અવર-જવર કરતા રહે છે. કાળની અપેક્ષાએ જઘન્ય એ અન્તમુહૂત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી અનન્તકાળ સુધી જે વનસ્પતિના .કાળ છે, त्यां रहे छे, भने गमनागमन अवर १२ ४रे छे, में इन्द्रिय, त्रायुधैन्द्रिय भ० २८
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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