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________________ प्रमेय चन्द्रिका टीका श०२१ २.१ उ.१ औषधिनहाति शाल्यादि गतजोवनि० २११ द्विकसंयोगे द्वादशभङ्गाः १२ । अथ कृष्ण-नीलकापोतेति विकसयोगेऽष्ट भङ्गा यथा-कृष्णलेश्यः नीललेश्या, कापोतलेश्यः१, कृष्णलेश्यः, नीललेश्या, कापोतलेश्याः२, कृष्णलेश्या नीललेश्याः, कापोतलेश्यः ई, कृष्णलेश्या, नील लेश्याः, कापोतलेश्या:४, कृष्णलेश्याः, नीललेश्या, कापोतलेश्यः५, कृष्णले. कापोतलेश्या४ इनका तात्पर्य स्वयं समझ लेना चाहिये। इस प्रकार से. ये १२ भंग प्रत्येक के हिक संयोग में बन जाते हैं । कृष्ण, नील और कापोत इन तीनों के संयोग में जो आठ भंग होते हैं वे इस प्रकार हैं'कृष्णलेश्यः, नीललेश्यः कापोतलेश्या' कोई एक जीव कृष्णलेश्यावाली होता है, एवं कोई एक जीव नीललेश्यावाला होता है और कापोतलेश्या. वाला होता है १, 'कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्याः२' कोई एक जीव कृष्णलेश्यावाला होता है, और कोई एक जीव नीललेश्यावाला होता है और अनेक जीव कापोतलेश्यावाले होते है२, कृष्गलेश्यः, नील. लेण्या, कापोतलेश्या३' कोई एक जीव कृष्णलेश्यावाला होता है, एवं अनेक जीव नीललेश्यावाले होते हैं एवं कोई एक जीव कापोतलेश्यावाला होता है३, 'कृष्णलेश्या, नीललेल्या, कापोतलेश्या कोई एक जीव कृष्णलेश्यावाला होता है, अनेक जीव नीललेश्यावले होते हैं। और अनेक जीव कापोतलेश्यावाले होते हैं। । 'कृष्णलेश्याः नीललेच्या अपोतोश्यावाणी डाय छे. 3 'नीललेश्याः कापोतलेश्याः ४. Hase." નીલેશ્યાવાળા અને અનેક જી કાપોતલેશ્યાવાળા હોય છે. જે આ રીતે ; આ બાર ભાગો વિકસંગમાં પ્રત્યેકના થાય છે. કૃષ્ણ શ્યા, નલલેશ્યા, અને ૬ કાપોતલેશ્યા, આ ત્રણ લેશ્યાઓના સાગથી જે આઠ ભંગ થાય છે, તે . मा प्रमाणे छ. 'कृष्णलेश्य. नीललेश्यः कापोतलेश्यः १४ वेश्यावाणी, नातवेश्यावाणी मने पातवेश्यावाण हाय छ. १ 'कृष्ण. लेश्यः नीललेश्यः कापोतलेश्याः २' ४ मे ७ वेश्यावाणी डाय કઈ એક જીવ નીલલેશ્યવાળ હોય છે અને અનેક જી કાપાત લેશ્યાવાળા डाय छे. २ 'कृष्णलेश्यः नीललेश्याः कापोतलेश्यः ३' मे TY. લેફ્સાવાળા હોય છે. અનેક જી નીલલેશ્યાવાળા હોય છે અને કોઈ એક १ अपातवेश्यावाणी य छे. 3 'कृष्णलेश्यः नीललेश्याः कापोतलेश्याः । છે કેઈ એક જીવ કૃષ્ણલેશ્યાવાળો હોય છે અનેક જી નીલલેશ્યાવાળો डाय छ, भने भने पातश्यावाणा डाय छे. ४ 'कृष्णलेश्यानी..
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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