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________________ २ भगedies केन प्रविशन्ति 'ते सिद्ध कविसंचिया ' ते खलु सिद्धाः कविसंञ्चिता भवन्ति, यस्माद' कारणात् सिद्धाः संख्पातेन प्रवेशनकेन प्रविशन्ति सिद्धशिलाम् तस्मात् कारण ते कविसञ्चिताः कथ्यन्ते । 'जे में सिद्धा एकरणं पवेसणएणं पविसंति" ये खलु सिद्धा एकेन प्रवेशन केन प्रविशन्ति 'ते णं सिद्धा अवतन्त्रगसंचिया' ते खल सिंद्धा अवक्तव्यसञ्चिताः ये सिद्धा एकेन भवेशनकेन प्रविशन्ति ते अव सचिंताएं कथ्यन्ते, 'से तेण जाव अत्रत्तंन्त्रगसंचिया वि' तत्तेनार्थेन गौतम 1 एवमुच्यते सिद्धाः कविसञ्चिता अवक्तव्यसञ्चिता अपि किन्तु नो अकविसञ्चिताः तेर्षा मेकसमयेन अनन्तानामसंख्यातानां वा प्रवेशसंभवादिति । 'एएसि णं भंते ! नेरइयाणं' एतेषां खलु भदन्त ! नैरयिकाणाम्, 'कतिसंचियाणं ' कविसञ्चिताकरते हैं' 'ते णं सिद्धा कतिसंचिया' इस कारण से वे सिद्ध ऋतिसंचित कहे गये हैं तात्पर्य कहने का यही है कि सिद्ध संख्यात प्रवेशनक से सिद्धगति में प्रवेश करते हैं इस कारण ले तो वे कतिसंचित कहे जाते और "जेणं सिद्धा एक्कएणं पवेसणएणं पविसंति" जिस कारण से वे एक प्रवेशक से प्रवेश करते हैं इस कारण से वे अवक्तव्यसंचित कहे गये हैं । 'से ते द्वेणं जाव अवत्तव्वगसंचिया वि" इसी कारणं हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि सिद्ध जीव कतिसंचित भी हैं और अवक्तव्य संचित भी हैं । परन्तु अतिसंचित नहीं हैं क्योंकि एक समय में अनन्त अथवा असंख्यात उन सिद्धों का वहां प्रवेशनक का अभाव है। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं- "एएसि णं भंते ! नेरइयाणं' हे भदन्त ! ये जो नैरयिक अपने कतिसंचित एवं अवक्तव्य अरणुथी सिद्ध सभ्यात प्रवेशनस्थी प्रवेश अरे छे, 'वे णं सिद्धा कतिसंचिया ' તે કારણથી તે સિદ્ધો કતિ સચિત કહેવાય છે. કહેવાનુ તા એ છે કેસિદ્ધો સખ્યાત પ્રવેશનથી સિદ્ધ ગતિમાં પ્રવેશ કરે છે. તે કારણથી તે हर्ति' सथित उद्देश्य है. भने 'जे णं सिद्धा एक्कऍणं पवेचणएणं पविसंति' જે કારણથી તેઓ એક પ્રવેશનકથી પ્રવેશ કરે છે, તેથી તે અવક્તવ્ય 'स'थित अडेवाय 'छे. 'से तेणट्टेणं जावे अवत्तव्वगसंचिया वि' मे अवधी से 'गौतमं ! में' येवु' ''म्' हे सिद्ध उति सथित ' डॉथ के, અવક્તવ્ય સ'ચિત પણ હેય છે, પરંતુ અકતિ સંચિત હતા નથી. કેમકે એક સમયમાં અનત અથવા અસખ્યાત સિદ્ધોને ત્યાં પ્રવેશનકના અભાવ हाथ छे. हवे गौतमस्वाभी अलुने भेवु छे छे - 'एएसि णं भंते ! ने रंइयां०' હું ભગવન જે આ નૈરિયફાકૃતિસ`ચિત, અતિસચિત, મને અવક્તવ્ય
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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