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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २० उ.१० सू०२ नैरयिकाणामुत्पादादिनिरूपणम् १३५ प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पुढवीकाइया असंखेजरणं पवेसणरणं पविसंति' पृथिवीकायिका जीवा अन्यगतिभ्य आगत्य असंख्येयेन प्रवेशनकेन प्रविशन्ति असंख्याताः सहैव पृथिवीकायिके समुत्पद्यन्ते किन्तु न संख्याता न चैकत्वोत्पादेन सञ्चिता उत्पद्यन्ते इत्यर्थः ‘से तेणटेणं जाव. नो अवत्तधगसंचिया वि' तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते पृथिवीकयिका नो कतिसश्चिता अपितु अतिमञ्चिता एव तथा नो अबक्तव्यसञ्चिता अपीति, यस्मादन्यगतिभ्य आगत्य असंख्यातानामेव युगपद् उत्पत्ति भवति तस्मात् पृथिवीकायिका अकतिसञ्चिता एव अवन्ति नतु कतिसञ्चिताः, न वा अवक्तव्यसञ्चिता भवन्तीति भावः । एवं जाव वणस्सइकाइया' एवं यावत् वनस्पतिकायिकार, एवं पृथिवीकायिकवदेव यावत्-अप्कायिकाः, तेजस्कायिका, वायुकायिका वनसतिकायिका जीवा नो कतिसञ्चिताः, न वा अवक्तव्यसश्चिताः किन्तु अतिकि पृथिवीकायिक जीव अकतिसंचित ही होते हैं -कतिसंचित और अवक्तव्यसंचित नहीं होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'पुढवीकाइया असंखेजएणं पवेसणएणं पविसंति" हे गौतम | पृथिवीकायिक जीव अन्यगतियों से आकर के असंख्यात प्रवेशनक से प्रवेश करते हैं अर्थात् असंख्यात जीव साथ ही पृथिवीकायिक में उत्पन्न होते हैं संख्यात उत्पन्न नहीं होते हैं और न एक जीव वहां उत्पन्न होता है "से तेगट्टेणं जाव नो अवत्तव्चगसंचिया वि" इस कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि पृथिवीकायिक न कतिसंचित होते हैं और न अव. क्तव्यसंचित होते हैं-किन्तु अतिसंचित ही होते हैं एवं जाव वणस्सइकाइया' पृथिवीकायिक के जैसा अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव भी न कतिसंचित होते हैं, न अवक्तव्यउत्तरमा प्रभु ४ छ -'पुढवीकाइया असंखेन्जपणं प्रवेसएणं पविसति' 8 ગૌતમ! પૃથ્વીકાયિક અન્ય ગતિમાંથી આવીને અસંખ્યાત પ્રવેશનકથી પ્રવેશ કરે છે. અર્થાત્ અસંખ્યાત છે એક સાથે જ પૃથ્વીકાયિકમાં ઉત્પન્ન થાય છે. સંખ્યતપણે ઉત્પન્ન થતા નથી અને એક એક જીવ પણ त्यो पन यता नथी. 'से तेणटेणं जाव नो अवत्तव्वगसंचिया वि' मे १२थी હે ગૌતમ મેં એવું કહ્યું છે કે–પૃથ્વીકાયિક કતિસંચિત હોતા નથી. તેમજ mastuय सयिन्याता नथी. ५२'तुमति सथित डाय छे. 'एव जाव वणस्सइकाइया' Yesयि प्रभाय २५५४4ि3, यि, वायुવિક, અને વનસ્પતિકાયિક જીવ પણ કતિસંચિત રહેતા નથી. તેમ અવ.
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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