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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० २० उ.१० उ०२ नैरयिकाण मुत्पादादिनिरूपणम् १३३ अपि अवक्तव्य सञ्चिता अपि ऋथ्यन्ते इति, तदयमर्थः ये खलु अन्यगतित आगत्य सहैव नरके संख्याताः समुत्पन्ना भवन्ति ते नारकाः कतिसञ्चिताः कथ्यन्ते तथा ये अन्यगतित आगत्य सहैव असंख्याताः ससुस्पधन्ते, ते अतिसश्चिताः कथ्यन्ते तथा ये अन्यगतित आगत्य एक एक इति कृत्वा सञ्चिता उत्पन्ना भवन्ति ते अवक्तव्यसंचिता इति कथ्यन्ते । 'एवं जाव थणियकुमारा वि' एवं यावत् स्वनिदकुमारा अपि नारकादारभ्य स्वनितकुमारपर्यन्ताः जीवा: कतिसञ्चिता अविसञ्चिता स्तथा अवक्तव्यसञ्चिता अपि भवन्तीति। 'पुढवीकाइयाणं पुच्छर' पृथिवीकायिकाः खलु पृच्छा. हे भदन्त ! पृथिवीकायिका जीवाः किं कतिसश्चिता अतिसञ्चिता अथवा अवक्तव्यसञ्चिताः, इति प्रश्नः । भगवाऐसा कहा है कि नैरपिक कतिसंचित भी अकतिसंचित भी एवं अधक्तव्यसंचित भी होते हैं अत: इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो जीव अन्यगति से आकर के साथ ही नरक में संख्यातरूप से उत्पन्न होते हैं वे नारक कतिसंचित कहलाते हैं तथा जो अन्यगति से आकर के साथ ही असंख्यात उत्पन्न होते हैं वे अकतिसंचित कहलाते हैं तथाजो अन्यगति से आकरके एक एक करके नरक में संचित होते हैंउत्पन्न होते हैं-वे अवक्तव्यसंचित कहलाते हैं । 'एवं जाव थणियकुमारा वि' इसी प्रकार मारक से लेकर स्तनितभारान्त तक के जीव कतिसंचित भी अकतिसंचित भी और अवक्तव्यसंचित भी होते हैं ऐसा जानना चाहिये 'पुढचीकाच्या णं पुच्छा' हे भदन्त ! पृथ्वीकायिक जीव क्या कतिसंचित होते हैं? या अकतिसंचित होते हैं ? या अवक्तव्यसंचित होते हैं ? या इस गौतम के प्रश्न के હોય છે, અતિસચિત પણ હોય છે, અને અવક્તવ્ય સંચિત પણ હોય છે, જેથી આ કથનનું તાત્પર્ય એ નીકળે છે કે-જે જ અન્ય ગતિમાંથી આવીને એકસાથે જ નરકમાં સંખ્યાતરૂપે ઉત્પન્ન થાય છે, તે નારકે કતિ સંચિત કહેવાય છે. તથા જે અન્યગતિથી આવીને એક સાથે જ અસંખ્યાત પણે ઉત્પન્ન થાય છે, તે અકતિ સંચિત કહેવાય છે. તથા જે અન્યગતિથી આવીને એક એક કરીને નરકમાં સંચિત થાય છે–ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ अपत०य सथित उपाय छे “एवं जाव थणियकुमारा वि' मे शत ना२. કથી લઈને સ્વનિતકુમારાન્ત સુધીના જેવો કતિ સંચિત, અકતિ સંચિત અને અવક્તવ્ય સંચિત પણ હોય છે. તેમ સમજવું. पुढवीकाइयणं पुच्छ।' मगवन् यि तिमयित हाय છે? કે અતિ સંચિત હોય છે? કે અવક્તવ્ય સંચિત હોય છે? ગૌતમ
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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