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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० २०१० २०१ जी० सोपक्रमनिरुपक्रमायुष्यत्वम् ११६ 'एवं जाव थणियकुमारा' एवं यावत् स्तनितकुमाराः, एवमेव नारकवदेव स्तनितकुमारपर्यन्तजीवा नो आत्मोपक्रमेण नो परोपक्रमेण वा उद्वर्तन्ते किन्तु निरुपक्रमेणैव अमरकुमारादारभ्य स्तनितकुमारान्तानासुद्वर्तना भवतीति भावः । 'पुढवीकोइगा जाव मणुमा निसु उववद्वृति' पृथिवीकायिका यावत् मनुष्याः त्रिवपि उद्वर्त ते एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याः इमे सर्वेऽपि आत्मोपक्रमेण परोपक्रमेण निरुक्रमेण उद्वर्तन्ते तेषामुदतगया नियमो. ऽपितु अनियमः कदाचित् कस्यचित्र उ.तना आत्मोपक्रमेण-कस्यचित् कदाचित् परोपक्रमेण, कस्यचित् कदाचित् निरुपक्रमेणापि उद्वर्तना भवतीति भावः । 'सेसा निरुपक्रम से ही होता है एवं जाव थणियकुमार।' इसी प्रकार से नारक जीवों के जैसे ही स्तनितकुमार तक के जीव न आत्मोप. क्रम से उद्वर्तना करते हैं, न परोपक्रम से उछलना करते हैं किन्तु निरुपक्रम से ही उद्वर्तना करते हैं असुरशुमार से लेकर स्तनितकुमारतक के सब भवनवासी देवों की उतना निरुपक्रम से ही होती है यही इस कथन का तात्पर्य हैं 'पुढवीकाझ्या जाव मणुस्मा ति उव. धति' पृथिवीकायिक से लेकर मनुष्य तक के जीप तीनों प्रकार से भी उद्वर्तना करते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, एवं पञ्चेन्द्रियतिथंच मनुष्य ये सब आत्मोपक्रम से, परोपक्रम से एवं निरुपक्रम से इन तीनों प्रकार से भी उद्वर्तना करते हैं इनके उद्वर्तनी का नियम नहीं है किन्तु अनियम है कदाचित् किसी के उतना आस्मोपक्रम से कदाचित् किसी के परोपक्रम ले और कदाचित् किसी थाय छे. 'एव जावं थणियकुमारी' मे शत ना२४ वानी भार સ્વનિતકુમાર, સુધીના જી આપક્રમથી ઉદ્વર્તન કરતા નથી. તેમજ પશપક્રમથી પણ ઉદ્વર્તન કરતા નથી પરંતુ નિરૂપક્રમથી જ ઉદ્ધના કરે છે, અસુરકુમારથી લઈને સ્વનિતકુમાર સુધીના બધા ભવનવાસી દેવોની ઉદ્વર્તના नि३५४भथी ५ थाय छे. ४ ॥ ४थनतुं तात्पर्य छे. 'पुढवीकाइया जाव मणुस्सा तिसु उववति' पृथ्वीयिथी ६४२ मनुष्य सुधीन लत्रणे પ્રકારથી ઉદ્વર્તન કરે છે. અર્થાત્ એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ અને મનુષ્ય આ બધા આમેપકમથી, પરાક્રમથી, અને નિરૂપક્રમથી એ રીતે ત્રણે પ્રકારથી ઉદ્વર્તન કરે છે. તેઓની ઉદ્વર્તના નિયમ હેતે નથી પરંતુ અનિયમ છે. કેઈ વાર કેઈ આપક્રમથી ઉદ્વર્તન કરે છે. કેઈવાર કેઈ પરોપકમથી અને કદાચિત કેઈ નિરૂપ
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
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