SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैत्रिका टीका श०२० उ०९ ०१ व्धिमतः गत्यादिनिरूपणम् स्थितो भवति तत्र गच्छतीत्यर्थः, 'करेसा' मानुषोत्तरपर्वते समवसरणं कृपा रात्र गवा इत्यर्थः, 'aft deers चंदा' तत्र चैत्यानि भगवन्मरूपित श्रुतादिलानि यथा भगवता ये मनुषोत्तरपर्वतषिपये भावाः प्रतिपादितास्ते तयेयेति कला श्रवादि ज्ञानानि वदन्ते, 'वंदिता' वन्दित्वा 'वितीपणं उप्पारण' द्वितीयेन उत्पातेन 'नंदीसरवरे दीवे समोमरणं करेड' नन्दीश्वर नामक द्वीपे समवसरणं करोति मानुषोत्तर पर्वतात् नन्दीश्वरवरं द्वीपं गच्छतीत्यर्थः 'करिता' नन्दीवरही पे समवसरणं कृत्वा तत्र गत्वेत्यर्थ, 'वर्हि चेइयाई बंदर' तत्र नन्दीश्वरद्वीपे चैत्यानिपूर्वदेवादि ज्ञान बन्दते 'वंदिता' तत्र चेत्यानिन्दित्वा 'ओ पनियतः ' ततो- नन्दीश्वरद्वीपात्प्रतिनिवर्तते परावृत्यागच्छतीत्यर्थ', 'पडिनियत्तित्ता' ततः प्रतिनिवृत्य 'se आगच्छ ' इहागच्छति यत्र पूर्व स्थितस्तस्मिन्नेव स्थाने पुनरागच्छतीत्यर्थः 'आगच्छित्ता इह चेइयाई बंद' आगत्य इह-अस्मिन् स्थानें चैत्यानि - भगवतः श्रुतादि ज्ञानानि वन्दते, उक्तञ्च विद्याचारणम्य तिर्यग्गतिर्विषयेपर पहुँच जाता है वहां पहुँच कर 'तर्हि चेहयाई' भगवत्प्ररूपित श्रुत आदि ज्ञानों की इस अभिमान से कि मानुषोत्तरपर्वत के विषय में जो भाव भगवान् ने मरूपित किये है वे उसी प्रकार से हैं वन्दना करता है ' वंदित्ता वितरण उप्पाएणं०' उन भगपज्जिन संबंधी ज्ञानों की बन्दना करके फिर वह वहां से द्वितीय उत्पात द्वारा नन्दीश्वर द्वीप में आता है और वहाँ आकर वह उन प्रभु के श्रुत आदि ज्ञानों की वन्दना करता है उनकी वन्दना करके फिर वहां से लौट आता है और जहां वह पहिले स्थित था वहां पर आ जाता है, वहां आकर वह भगवान् के श्रुत आदि ज्ञानों की बन्दना करता है | विश्राचारण की तिर्यग्गति के विषय में ऐसी ही यह गाथा कही गई है- 'पढ़ यहांची लय है, अने त्यां पोथीने 'तहिं चेहयाई' भगवत्प्रापित श्रुत વિગેરે જ્ઞાનાની એ અભિપ્રાયથી કે માનુષેાત્તર પતના વિષયમાં જે ભાષા भगवाने प्र३पित अहे, ते हारे है. पन्हा छे. 'वदिता बितीरणं उत्पारण' ते भगवान छनसंगधी ज्ञानानी वहना हवीने ते તે ત્યાંથી ખીજા ઉત્પાત દ્વારા નન્દીવર દ્વીપમાં તે ત્યાંથી પાછા આવી જાય છે. અને તે ત્યાં છે, ત્યાં આવીને તે ભગવના ત વિગેરે તેની ચ્ચારણની તિય ગતિના સંબધમાં આ પ્રશ્નોની આ આવે છે, અને ત્યાં અગિ જે તે ત્યાં આવી ય વહન કરે છે દેવામાં આવે છે,
SR No.009324
Book TitleBhagwati Sutra Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages683
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy