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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२०३०५ सू०८ अनन्तप्रदेशिकपुद्गलगतवर्णादिनि० ८६५ परित्या एकत्वानेकत्वाभ्यामिहापि चतुःषष्टि भङ्गाः करणीयाः ज्ञातव्याचेति भावः २ | 'सच्चे कक्खडे सच्चे निद्धे देसे गरुए देसे कहुए देसे सीए देसे उसिणे' सर्वः कशः सर्वः स्निग्धः देशो गुरुको देशो लघुको देशः शीतो देश उष्गः, 'एवं जाव सव्वे मउए सन्वे लुक्खे देसा गरुया देसा लहुया देसा सीन देसा उसिणा' एवं यावत् स मृटुकः सर्वो रूक्षो देशा गुरुकाः देशा लघुकाः देशाः शीताः देशा उष्णा', 'एए चट्ठि भंगा' एते चतु पष्टि ङ्गा, इहापि पूर्ववदेव चतुःषष्टि भङ्गाः करणीयाः ३ । 'सव्वे गरुए सव्वे सीए देसे कक्खडे देसे मउप देसे निद्धे देसे लुक्खे' सर्वो गुरुकः सर्वः शीतः देशः कर्कशो देशो मृदुको देशः के एवं शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष आदि में क्रमश: एक और अने कव करके ६४ भंग करना चाहिये, 'सन्धे कक्खडे. सव्वे निद्रे, देसे गरुए, देखे लहुए, देसे सीए, देसे उसिणे' वह सर्वाश में कठोर, सर्वांश में स्निग्ध, एकदेश में गुरु, एकदेश में लघु, एकदेश में शीत, और एकदेश में उष्ण हो सकता है - यहाँ से लगाकर 'एवं जाय सब्वे are सव्वे लुक्खे, देसा गरुया, देता लहुया, देसा सीया, देसा उसिणा' यावत् वह सर्वांश में मृदु, सर्वांश में रूक्ष, अनेक देशों में गुरु, अनेक देशों में लघु, अनेक देशों में शीत और अनेक देशों में उष्ण स्पर्शवाला हो सकता है 'यहां तक के कथन में भी ६४ भंग हो जाते हैं यही चान एए चउसट्ठि भंगा' पद से प्रकट की गई है, इसी प्रकार से - 'सव्वे गरुए, सच्चे सीए, देसे कक्खडे, देसे मउए, देखे निद्धे, देसे लक्खे' वह सर्वांश में गुरु, सर्वांश में शीत, एकदेश में कर्कश, एकदेश में मृद्र, एकदेश में स्निग्ध, और एकदेश में रूक्ष स्पर्श પશુ અને અનેકપણુ કરીને ૬૪ ચાસઠ ભંગે મનાવી લેવા. એવી જ રીતે 'सव्वे फक्खड़े सव्वे निद्धे देसे गरुर देखे लहुए देसे सीए देसे उसिणे' ते પેાતાના સર્વાશથી કર્કશ સર્વાશથી સ્નિગ્ધ એક દેશથી ગુરૂ એક દેશથી લઘુ એક દેશથી શીત અને એક દેશથી ઉષ્ણુ સ્પશવાળા હાય છે. અહિથી લઈને 'एव' जाव सव्वे मउए सव्वे लुक्खे देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया ऐसा उसणा' यावत् ते सर्वांशी भृटु सर्वाशधी ३क्ष मने! हे शोभां गु३ અનેક દેશેામાં લઘુ અનેક દેશેમાં શીત અને અનેક દેશેામાં ઉષ્ણુ સ્પર્શ વાળા હાય છે. અદ્ધિ' સુધીના કથનમાં પણ ૬૪ ચાસઠ ભગા થઈ જાય છે. चट्ठि मंगा' मेवात या सूत्रपाथी मतावी छे. मेन रीते 'सव्वे गरुप सव्वे सीए देसे कक्खडे देसे मउए, देसे निद्धे देसे लक्खे' ते पोताना सर्वाશથી ગુરૂ સર્વાશથી શીત એક દેશમાં કર્કશ એક દેશમાં મૃદુ એક દેશમાં भ० १०९
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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