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________________ ६१२ भगवतीसत्रे त्रिकसंयोगे पश्चचत्वारिंशत् ४५, एवं रावसंकलनया नवति ९० । पञ्चानामपि पञ्चचतुष्कसंयोगा भवन्ति ते च सूत्रे एवं प्रदर्शिताः, एक द्वित्रि चतुर्वर्णधु पञ्च चत्वारिंशत् पश्च चत्वारिंशत् पञ्चानां भङ्गानां मायान्नवतिभंगा भवन्तीति वर्णसावधिभंगविचारः । 'जइ एगगंधे यदि एकगन्धः चतुष्पदेशिकः स्कन्धो भवेद तदा 'सिय सुमिगंधे य १ सिय दुभिगंधे य २' स्यात् सुरभिगन्धवान् स्यात् दुरभिगन्धवान् , कदाचित् सुरभिगन्धवान् भवेत् चतुर्णामपि प्रदेशानामेक सुरमिगन्धवत्वात् , कदाचित् दुरभिगन्धवान् वा भवेत् चतुर्णामपि प्रदेशाना समानतया दुरभिगन्धवत्वात् । 'जइ दुगंधे सिय सुभिगंधे य दुन्भिगंधे य' यदि द्विगन्धस्तदा स्यात्-कदाचित् सुरभिगन्धश्च दुरभिगन्धश्च प्रदेशद्ववे सुरभिगन्धव में ४० और चतुस्संयोगी ५ पांच कुल मिलाकर ९० हो जाते हैं । पांचो वर्गों के पांच ही चतुष्क संयोग होते हैं जोकि सूत्र में ही दिखला दिये गये हैं इस प्रकार का यह भंग विचार वर्णों को आश्रित करके हुआ है । अब गन्ध को लेकर भंगविचार किया जाता है-'जह एगर्गधे सिय सुन्भिगंधे य १ दुन्भिगंधे य २' यदि वह चतुःप्रदेशी स्कन्ध गंधघाला होता है तो इस सामान्य कथन में इस प्रकार से वह गंधवाला हो सकता है-कदाचित् वह सुरभिगंध वाला हो सकता है १ या कदाचित् वह दुरभिगंध वाला हो सकता है २ जब उसके चारों ही प्रदेश एक सुरभिगंध वाले होते हैं तो वह सुरभिगंध वाला होता है ? और जब उसके चारों ही प्रदेश एक दुरभिगंबरूप से परिणमित होंगे तो वह दुरभिगंध वाला होता है २ 'जइ दुगंधे सिय सुभिगंधे य दुन्भिगंधे य ४' 'यहां पर चार का अङ्क दिया है सो चार भंग इस સંગમાં ૪૫ પિસ્તાળીસ એ બધા કુલ મળીને ૯૦ નેવું ભંગ બને છે. પાંચ વર્ણોને ચતુઃ સચોગી પંચ જ ભંગ કહ્યા છે. જે સૂત્રમાં જ કહ્યા છે. આ વર્ણ સંબંધી અંગે વિચાર કરવામાં આવ્યો છે. १५ समधी समाना विद्यार ४२पामा भाव छ -'जइ एग गंधे सिय सुन्भिगंधे य१ दुन्भिगधे यर' ने त यार प्रशिवाणी २४ गध ગુણવાળો હોય છે. તે આ સામાન્ય કથનમાં આ રીતે તે ગધ ગુણવાળો બને છે. કદાચ તે સુંગધવાળો હોય છે. અથવા કદાચ તે દુગઘવાળ હાઈ શકે છે. જ્યારે તેના ચારે ભાગે એક સુગંધવાળા હોય છે ત્યારે તે સગવાળો હોય છે ૨ અને જ્યારે તેના ચારે ભાગો એક દુર્ગધ રૂપથી परिषभ छ पारे ते पाणी खाय छे. 'जइ दुर्गधे सिय सुभिगधे य
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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