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________________ अमेयचन्द्रिका टीका श०२० उ०१ सू०१ द्वीन्द्रियनामकप्रथमोद्देशनिरूपणम् ४८१ देशकमकरणमध्ये तव्यम् तत्राह-'जाव' इत्यादि, 'जाव उववति' यावदुद्व- , न्ते लेश्यामकरणादारभ्य उद्वर्तनामूत्रपर्यन्तम्-तथाचोद्वर्तनापकरणम् 'तेणं भंते ! जीवा अणंतरं उन्नट्टिचा कर्हि उवज्जति ते खलु भदन्त ! जीवा अनन्तरमुवृत्त्य कुत्र गच्छन्ति कुत्रोत्पद्यन्ते, हे गौतम ! तेजस्कायिका जीवा तेजस्कायिकतो निम्मृत्य कुत्रोत्पद्यन्ते इत्यादि विशेषजिज्ञासुभिः तत्रत्यम् एकोनविंशतितमशतकीयतृतीयोद्देशकस्थं प्रकरणं तत्रापि 'एवं उब्वट्टणा जहा वक्कंतीए' इत्युक्तं तेन प्रज्ञापनायास्तृतीयोद्वर्त्तना पदं च सविस्तरं द्रष्टव्यम्।' 'नवरं सम्मदिट्ठी वि मिच्छादिट्ठी वि नो सम्मामिच्छादिट्ठी' नवरं सम्यग्दृष्टयोऽपि सम्बन्ध में किया गया है वैसा ही लथन यहां पर भी 'जाव उमट्टतितक. कर लेना चाहिये अर्थात् श्याप्रकरण से लेकर उद्वर्तना सून पर्यन्त का प्रकरण जोकि १९ वे शतक के तृतीय उद्देशे में है यहां पर कह लेना . चाहिये। वह उदर्तना प्रकरण वहां इस प्रकार से है 'ते णं भते ! जीवा अणंतर उव्वहिता कहिँ उववज्जंति' हे भदन्त ! वे तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिक पर्याय से निकल कर कहां उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । इस प्रश्नके समाधान के निमित्त वहां ऐला कहा गया है कि हे गौतम ! 'एवं उचट्ठणा जहा वक्कंतीए' इस विषय को जानने के लिये प्रज्ञापना सूत्र का व्युत्क्रान्ति पद देखना चाहिये अतः विशेष जिज्ञासुओं को १९ वें शतक का तृतीय उद्देशक और उसमें भी प्रज्ञापना सन का छट्ठा उद्वर्तना पद विस्तार सहित देखना चाहिये । 'नवरं सम्मदिट्टी वि मिच्छादिट्ठी वि नो सम्मामिच्छादिही' लेश्याप्रकरण से लगाकर उद्ध. यन लिया ५gy 'जाव उवटुंति' मे. वा४या सुधी ४ पु. अर्थात् वेश्या પ્રકરણથી આરંભીને ઉદ્વર્તના સૂત્ર સુધીનું ૧૯ ઓગણીસમા શતકનું પ્રકરણ ઓગણીસમા શતકના ત્રીજા ઉદ્દેશામાં છે તે અહિયાં સમજી લેવું. ત્યાં તે ઉદ્ધતના ५.२९ मा शa छ. 'वेणं भंते ! जीवा अणंतरं उपट्टित्ता काहिं उववजंति' હે ભગવન તે તેજસકાયિક જ તેજસ્કાયની પર્યાયથી નીકળીને કયાં ઉત્પન્ન થાય છે? ઈત્યાદિ પ્રશ્ન કર્યા છે. અને તે પ્રશ્નોના સમાધાન માટે ત્યાં આ प्रमाणे घुछ ४-ॐ गौतम! 'एवं उवट्टणा जहा वक्तीए' मा विषयने સમજવા માટે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રનું વ્યુત્ક્રાંતિ પર જોઈ લેવું. જેથી વિશેષ જીજ્ઞાસુ એએ એગણીસમા શતકનો ત્રીજો ઉદેશે અને તેમાં પણ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રનું त्री ना ५६ सविस्तर न सभ . 'नवरं सम्मदिट्ठी वि मिच्छा. दिट्ठी वि नो सम्मामिच्छादिदी' श्या ४२थी त ४२५ सुधीमा म L - . . .
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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