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________________ भगवतीस्त्रे गन् परिणमन्ति तदनन्तरं शरीरं वध्नन्ति किमिति प्रश्नः, पृथिवीकायिकवदेव इहापि सर्वं ज्ञातव्यम् भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः यतस्तेजस्कायिकाः प्रत्येकाहाराः प्रत्येकपरिणामाः प्रत्येकमेव शरीरं बध्नन्ति ततः प्रत्येकं शरीरं वद्ध्वा आहरन्ति परिणमन्ति वा शरीरं वा वनन्ति इत्यादिकं सर्व पूर्ववदेवेत्युत्तरम् । पृथिवीकायिकाद्यपेक्षया यद्वैलक्षण्यं तेजस्कायिकेषु तदाह-'नवरं' इत्यादि । 'नवरं उववाओ ठिई उन्धट्टणा य जहा पनवणाए 'सेसं तं चेव नवरमुपपातः स्थिति: उद्वर्तना च यथा प्रज्ञापनायो शेष तदेव तेजस्कायिकदेण्ड के स्यादादि द्वाराणि पृथिवीकायिकदण्डकवदेव वक्तव्यानि उत्पादस्थित्युद्वर्तनानु अस्ति विशेषः स च प्रज्ञापना मूत्रे इवात्रापि द्रष्टव्यः प्रज्ञापना आहारपुद्गलों को ग्रहण करके फिर बाद में वे क्या उन पुदगलों को परि माते हैं ? परिणमाने के बाद फिर क्या वे विशिष्ट शरीर का बन्ध करते हैं? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं-हे गौतम! 'णो इणट्टे सम?' यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि प्रत्येक तेजस्कायिक जीव ही अपने २ शरीर का बन्ध करते हैं, अपने २ शरीर के प्रायोग्य पुगलों को आहाररूप से ग्रहण करते हैं गृहीत आहार को सार असार रूपमें परिणमाते 'हैं बाद में वे विशिष्टशरीर का बन्ध करते हैं इत्यादि सब कथन पृथि. धीकायिक के कथन जैसा ही जानना चाहिये परन्तु उनके कथन में और इनके कथन में यदि कोई विशेषता है तो वह उत्पाद स्थिति और 'उद्वर्तना द्वारों में है यही वात 'नवरं उववाओ ठिई उठाणा य जहा.' इस सूत्रगाठ द्वारा व्यक्त की गई-अर्थात् स्यात् आदि द्वार तो पृथिवी. 'कायिक की तरह से ही यहां कहे गये हैं। परन्तु उत्पाद स्थिति और કરે છે? અને આહારપુલેને ગ્રહણ કરીને તે પછી તે પુલેને પરિણાવે છે? અને પરિણુમાવ્યા પછી તેઓ શું તેને વિશેષ પ્રકારે બંધ કરે છે? આ प्रशन उत्तरमा प्रभु के 2-3 गौतम! 'णो इणठे समठे' मा म બરાબર નથી. કેમ કે–પ્રત્યેક તેજસ્કાયિક જીવ જ પિતા પોતાના શરીરના પ્રાથાગ પલેને આહાર રૂપે ગ્રહણ કરે છે. અને ગ્રહણ કરેલા આહારને સાર અસાર રૂપે પરિણુમાવે છે. તે પછી વિશિષ્ટ શરીરને બંધ કરે છે વિગેરે સઘળું કથન પૃશ્ચિકયિકના કથન પ્રમાણે સમજવું પરંતુ તે કથનમાં અને આના કથનમાં જે કંઈ વિશેષપણું હોય તે તે ઉત્પાદ રિથતિ અને ઉદ્ધતના દ્વારમાં छ. ' मे त 'नवर उववाओ ठिई उवट्टणा य जहा०' से सूत्रा द्वारा मवीन Mर्थात् स्यात्' विगेरे द्वारा तो शिक्षाविहीनी भा३४१ महियां छे.
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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