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________________ ૨૪૯ भगवती सूत्रे * इत्यर्थे तु धान्यविशेषपरत्वम् मण्डपादिपदवत् अर्थद्वयपरत्वं मण्डं पिवतीति विग्रहे मण्डपानकर्तृत्वमर्थः अन्यत्र तु मण्डपो - वितानविशेषस्तद्वत् प्रकृतेऽपीति । 'तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवया ते विविधा पन्नत्ता' तत्र खलु ये ते मित्रसरिसवयाः ते त्रिविधाः - त्रिप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः 'तं जहा सहजायया सहव डिया सहपंकीलिया' तथा सहजातकाः सहर्द्धिताः सहपांशुक्रीडिताः तत्र सहजातकाः - समानकाले जाताः, सहवर्द्धिताः - सहैव समानस्थाने समानकाले लालनपालनादिना वर्द्धिताः, सदैव पांशुभिः धूलिभिः क्रीडितार्थेति । 'ते णं परक होता है और 'सर्षपक' इस अर्थ में सरिसव पद धान्यविशेष परक होता है इस प्रकार यह पद मण्डपादि पद के जैसे अर्थ द्वय परक है मण्डं पिवति इति मण्डपः' जब मण्डप पद का ऐसा विग्रह किया जाता है तब यह पद मांड को पीनेवाले का बोधक होता है और जब ऐसा विग्रह नहीं किया जाता है तब यह मण्डप वितान विशेष का बोधक होता है इसी प्रकार प्रकृत में भी 'सरिसव' पद द्व्यर्थक है ऐसा जानना चाहिये इनमें जो 'मित्तसरिसवया ० ' जब यह शब्द मित्र अर्थ परक गृहीत होता है तब वे मित्र सरिलव ३ प्रकार के कहे गये हैं- 'तं जहा सहजायया ० ' जैसे सहजातक मित्र, जो समान समय में उत्पन्न हुए होते हैं वे सहबर्द्धित - साथ २ एक स्थान में एक काल में जो लालनपालन आदि करके पड़े किये गये होते हैं वे और सहपांशुक्रीडित साथ २ पक' मे अर्थमां 'सरिसव' यह धान्य विशेषनु वाथ छे मा रीते मा 'सरिसव' यह भएउपाहि पहनी प्रेम मे अर्थवाया छे. 'मण्डं पिबति' 'इति मंडप' भय पहनो क्यारे मा रीते विग्रह रवामां आवे छे, त्यारे भा પદ માંડ–ચાખાના એસામણને પીવાવાળા એ અર્થનું ખેાધક છે. અને જ્યારે એ પ્રમાણેના વિગ્રહ કરવામાં ન આવે ત્યારે મડપ' માંડવા એ અના ધ કરાવે છે. એજ રીતે આ સરિસવ પદ દ્વિમથી છે. તેમ સમજવુ' तेभां ने 'मित्तंसरिसवया' क्यारे या अर्थ भित्र अर्थवाणु यह थ राय छे, त्यारे ते मित्र 'सरिसव' शु अारना हेवामां आवे छे. 'तंजहा सहजायया०' प्रेम } समता मित्र ने समान - सरमा- सभयभां उत्पन्न थया હાય છે, તે, ૧ સહેવધિ ત-એક સ્થાનમાં એક સાથે, એક કાળે જેને લાલન घासन विगेरे उरीने भोटा रवामां आवे छे ते, २ भने 'सहपांशुक्रीडिताः' એક સાથે ધુળમાં જે રમેલા હાય છે તે, ૩ આવા આ ત્રણ પ્રકારના
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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