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________________ भगवतीसूत्रे १७६ तु वयं तथेतिभावः 'तरणं भगवं गोयमे' ततः खलु भगवान् गौतमः ते अन्नउस्थिए एवं पडिहणई' तान् अन्ययूथिकान् एवम् - यथोक्तप्रकारेण प्रतिहन्ति पराभवति निरूत्तरीकरोतीत्यर्थः ' पडिहणित्ता' प्रतिहत्य - पराभूय' जेणेव समणे भगवं महावीरे' यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीर ः 'तेणेव उत्रागच्छ तत्रैवोपागच्छति' उपागत्य - भगवतः समीपमागत्य' समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसः भ्रमणं उन अन्ययूधिकों से ऐसा कहा 'तुझे णं अज्ज रीयं रीयमाणा' जप आप लोग गमनागमन करते हैं, तब जीवों को 'पेच्चेह' कुचलते जाते हैं । 'जाब उवद्दवेह' यावत् उन्हें उपद्रवित करते जाते हैं । यहाँ यावपद से 'अभि' आदि पदों का संग्रह हुआ है । 'तए णं तुज्झे पाणे पेच्चमाणा इत्या०' इस कारण प्राणों को कुचलने के कारण और यावत् उन्हें उतद्रवित करने के कारण आप लोग विविध त्रिविश्व से असंयत हैं और एकान्तबाल भी विरतिरहित भी हैं । निगमन इसका केवल ऐसा ही है कि जिस कारण से आप लोग मार्ग पर चलते हुए प्राणों को नष्ट करते हो इसी कारण से आप लोग प्राणों के विनाशक होने से असंयत और एकान्तबाल होते हो, हम लोग नहीं । 'तए भगवं गोध मे ते अन्न उत्थि एवं पsिहणई' इस प्रकार से भगवान् गौतम ने उन अन्ययूथिकों को इस प्रकार से निरुत्तर कर दिया । 'पडिणित्ता जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छद्द' और निरुत्तर करके फिर वे जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे वहां पर आये । 'स्वाग यूथाने भा प्रभा - "तुज्झे णं अज्जो ! रीय रीयमाणस्स" क्यारे तभी सोही भाव न पुरो छे। त्यारे कवीने "पेच्चेह" उथडे छे। "जाब उ६वेद" यावत् तेने उपद्रव रे। छो, अहि यावत्पथी "अभिहथ" विगेरे पहो ग्रह ४राया छे. "तए णं तुज्झे पाणे पेच्चेमाणा" इत्याहि आशियाने उडवा થી યાવત્ તેઓને ઉપદ્રવવાળા કરવાથી તમે ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચૈાગી અસયત છે અને એકાન્તમાલ પણ છે તથા વિરતિ વિનાના પણ છે. આ કથનના સાર એ છે કે—તમે લેાકા માર્ગ પર ચાલતાં પ્રાણિયાને મારા છે તેઓને દુઃખ પહેાંચાડા છે તે કારણથી તમા જ પ્રાણિયાના પ્રાણેાના નાશ કરનાર હૈાવાથી અસયત અને એકાન્તમાલ છે. અમેા એકાન્તમાલ નથી. “तर णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिय एवं पडिहणह" मा रीते भगवान् गौतम स्वाभीओ ते मन्ययूथिने आा रीते निरुत्तर अरी हीधा. "परिहणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ" मा रीते तेमाने निउत्तर मनावीने
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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