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________________ का टीका श०१८ उ०७ सु०३ मर्तुकश्रमणोपासक चरितनिरूपणम् ११३ , राजगृहे नगरे ' मदुए नाम समणोवासए परिवसई' मदुको नाम श्रमणोपासकः परिवसतीति' 'अड्डे' आढ्यः अतिशयितधनवान् 'जाव अपरिभूए? यावत् अपरिभूतः केनापि पराभवितुमयोग्य इत्यर्थः अत्र यावत् पदेन 'दित्ते विस्थिन्नविउलभवण सयणासण जाणवाहणा इण्जे वहुधणवहुजायरूवरयए आओगपओगसंप्प उच्छिविलमतपणे वहुदासीदासगोमहिसग वेलयप्यभूए बहुजणस्स' इति ग्राह्यम् । दीप्तो विस्तीर्ण विपुल भवन शयनासनयानवाहनाकीर्णो बहुधनबहुजात रूपरजतः आयोगप्रयोग संयुक्तो विन्छर्दितविपुलभक्तपानः बहुदासीदासगोमहिपगवेलकमभूतो बहुजनस्य - एषां व्याख्यानम् उपासकदशांगसूत्रस्य मत्कृतायामगरधर्म संजीवनी टीकायां द्रष्टव्यम् | 'अभिगयजीवाजीवे' अभिगतजीवाजीचः, बद्ध ही है। यही बान सातवें शतक के दशवें उद्देशे में कही गई है यहां संक्षिप्त रूप से प्रकट की गई जाननी चाहिये । 'तत्थ णं रायगिहे नयरे' उस राजगृहनगर में 'अहुए नायं समणोवासए परिवस' मटुक नामका श्रमणोपासक रहता था । अड्डे जाव अपरिभूए' यह विशेषरूप में सब प्रकार से सम्पन्न था धनिक था, यावत् अपरिभूत किसी के भी द्वारा पराभव को प्राप्त हो सके इस योग्य नहीं था यहां यावत्पद से 'दित्ते विस्थिनदिउलभवणसघणासणजाणवाहणबहुधणबहुजागरूवरथए आओगपओगते विच्छभित्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूए बहुजणस्स' इस पाठ का संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या उपासकदशांग सूत्र पर की गई अगार संजीवनी टीका में की जा चुकी है, अतः वहीं से देख लेना चाहिये। 'अभिगयजीवाजीवे' यह यदुक श्रावक अडीयां आशुथी प्रगट श्वासां गावी . " तत्थ ण रायगिहे नयरे" ते शभ्गृडे नगरभां “मदुए नामं सवणेावासए परिवसइ” भद्रुट नामने। श्रमापास रहेन। ते "अड्ढे जाव अपरिभूए" ते माढय यावत् अर्धथी याशु पराभ्य ન પામે તેવા હતેા અર્થાત્ વિશેષ રૂપથી દરેક પ્રકારે સપન્ન ધનાઢચ હતા. अडियां यावत्पदृधी "दित्ते वित्थिन्नविउल - भवण - सयणासणजाणवाहण बहुधणजायsarre आयोगपओगसंपत्ते विच्छड्डियविउलभतपाणे बहुदासीदासगोमहिस गवेलयप्पभूए बहुजणस्स” मा पहना संथ धये। छे, या महोनी व्याभ्या ઉપાસકદશાંગ સૂત્ર પર મે કરેલી અગારસ જીવની ટીકામાં કરવામાં આવી छे. ते त्यां ले लेवी. 'अभिनय - जीवाजीवे' ते व विगेरेने यथार्थ ३ लघुनार तो, अर्थात् આ મહુક શ્રાવક સારી રીતે જાણુ। હતા કે આ છત્ર સચેતન અર્થાત્ ચેતનાલક્ષણુ भ० १५
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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