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________________ १०४ भगवतीस्त्रे धानानि चतुर्विंशतिदण्ड केषु मनुष्याणामेव भवन्ति नान्येपाम् , तत्रापि संयतानामेव, सुमणिधानानां चारित्रपरिणतिरूपत्वादिति । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाच विहरई' तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति यावद्विहरति हे भदन्त ! उप. ध्याधारभ्य सुपणिधानपर्यन्तं यद् देवानुप्रियेणोपदिष्टं तद सर्वमेवमेव सर्वतः सत्यमेवेति कथयित्वा भगवन्त वन्दित्वा नमस्कृत्य संयमेन तपमा आत्मान भावयन् विहरतीति । 'तए णं समणे भगवं महावीरे' ततः खलु समणो भगवान् महावीरः, 'जाव बहिया जणवपबिहार विहरइ' यावद् वहिर्जनपदविहार विहरति यस्मिन् स्थाने भगवन्तं गौतममुपदिशन् आसीत् भगवान महावीरः तस्मात् स्थानात् निर्गत्य बहिर्जनपदविहारम् ततो राजगृहात् विभिन्नमदेशे विहार विहरति विहार कृतवानितिमात्रः ॥सू० २॥ प्रकार के सुप्रणिधान कहे गये हैं इन्हें ही 'मणस्मुप्पणिहाणे इत्यादि०' मनः सुपणिधान आदि नामों से इस सूत्र द्वारा प्रकट किया गया है। "एवं चेव' इसी प्रकार है जैसा कि प्रश्न में पूछा गया है अर्थात् मनुष्यों को मनवचन, काय को आश्रित करके तीनों प्रकार के स्तुप्रणिधान होते हैं, वहां भी लयतों को ही होते हैं क्योंकि सुप्रणिधान चारित्रपरिणति रूप होते हैं । 'सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति' जाव विहरह' हे भदन्त । जैसा आप देवानुप्रियने यह विषय कहा है वह ऐसा ही है-सर्वथा सत्य ही है । अर्थात् उपधि से लेकर सुप्रणिधान पर्यन्त जो आपने प्रतिपादित किया है वह सब इसी प्रकार से है ऐसा कहकर घे गौतम भगवान् को वन्दना नमस्कार करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए अपने स्थान पर विराजमान हो गये। 'तए णं समणे भगवं महावीरे जाच बहिया जणवयविहारं विहरह' इसके बाद श्रमण આવ્યા છે. તેઓને મનસુપ્રણિધાન વચન સુપ્રણિધાન અને કાય સુપ્રણિધાન એ ત્રણે પ્રણિધાન હોય છે. મનુષ્ય સિવાયના તેવીસ દંડકમાં સુપ્રળિયાર હતા જ नथी ॥२९ मनुष्य सिवायना वामां यात्रिन मला २ छ. "सेवं भते ! सेवं भंते । त्ति जाब विहरई" 3 सावन मा५ पानु प्रिय माविषयमा જેવું પ્રતિપાદન કર્યું છે. તે તે પ્રમાણે જ છે. આ૫નું કથન સર્વથા સત્ય છે. અર્થાત ઉપધિથી આરંભીને સુપ્રણિધાન સુધિના વિષયમાં આપે જે પ્રતિપાદન કર્યું છે તે સઘળું તેજ પ્રમાણે છે. આ પ્રમાણે કહીને તે ગૌતમ સ્વામીએ ભગવાનને વંદના નમસ્કાર કરીને તપ અને સંયમથી આત્માને सावित ४२॥ ५४पाताने स्थान विमान थ/ गया. "तए णं समणे भगवं महावीरे जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ" ते पछी श्रम समवान
SR No.009323
Book TitleBhagwati Sutra Part 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages984
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size63 MB
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