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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०१८ उ०१ ०२ चरमाचरमत्वे दृष्टिद्वारम् ५९९ स्यादवरमः, 'एनिदियविगलिंदियवज्ज' इति, एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां किलमिश्रत्वं न भवतीति नारकादिदण्डके मिश्रालापे एकेन्द्रियविकलेन्द्रिया नैत्र वक्तव्या इति भावः, इदमुपलक्षणम् तेन सम्परहटयालापके एकेन्द्रियवर्ज मित्यध्येतव्यम् यतः एकेन्द्रियाणां सिद्वान्ने सास्वादनसम्यग्दर्शनाभावात् । एवमन्यत्रापि यत्र यस्य सम्भावना न भवति तत्र तस्य परित्यागः कर्तव्यः । यथा संक्षिपदे एकेन्द्रियाइयो वर्जनीयाः, असंक्षिपदे ज्योतिष्कादयः परित्याज्या इति । 'सिय चरिमे सिप अचरिमे' स्याचरमः स्यादचरमः सम्पग्मिथ्याष्टिः स्याचरमः यस्य तत्माप्तिः पुनने भविष्यति, यस्यतु सम्यग्मिथ्या दृष्टित्वं पुन भविष्यति सोऽवरमो भवतीति । 'पुहुतेणं चरिमावि अचरिमावि' पृथक्त्वेन चरमा अपि अवरमा अपि यथा एकवचनमाश्रित्य स्याचरमत्वं स्यादचरमत्वम् तथा बहुववनाश्रयणेनापि स्याचरमाः स्याद परमा अपि. इति भावः ।६। चरम और कदाचित् अचरम है । तात्पर्य यही है कि नारकादि दण्डक में मिश्रालाप में एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय नहीं कहना चाहिये । यह पद उपलक्षणरूप है। इससे सम्यग्दृष्टि के आलापक में भी 'एकेन्द्रिय वर्ज यह पद लगा लेना चाहिये । क्योंकि सिद्धान्त में एकेन्द्रियों के सम्यग्दर्शन का अभाव कहा गया है । इसी प्रकार से अन्यत्र भी जहां जिस की संभावना नहीं है वहां उसका परित्याग कर देना चाहिये, जिसे संज्ञिपद में एकेन्द्रिय और असंज्ञि पदमें ज्योतिष्मादिक को छोड लिया गया हैं। 'सिय चरिमे सिय अचरिमें जिस सम्थर मिथ्यादृष्टि को उस सम्यगूमिथ्याष्टित्व की प्राप्ति पुनः न होगी वह चरम है और जिसको उस की प्राप्ति पुनः होगी वह अचरम है। 'पुहुत्तेण चरिमा थि, अचरिमा वि' जिस प्रकार से एकवचन को आश्रित करके कदाचित् चरमता और कदाचित् अचरमता कही गई है। उसी प्रकार વગેરે દંડકમાં મિશ્ર આલાપકમાં એકેન્દ્રિય, વિકલેન્દ્રિય તેમ કહેવું ન જોઈએ આ પદ ઉપલક્ષણ રૂપે છે તેથી સમ્યક્દષ્ટિના આલાપકમાં પણ “એકેન્દ્રિયવજ આ પદ લગાવી લેવું જોઈએ. કેમકે સિદ્ધાન્તમાં “એકેન્દ્રિયાને સાસ્વાદન સમ્યગદર્શનને અભાવ કહ્યો છે. એ જ પ્રમાણે બીજે પણ જ્યાં જેની સંભાવના ન હોય ત્યાં તેને ત્યાગ કરી લેવો. જેમ સંક્ષિપદમાં એકેન્દ્રિય વિગેરે અને असज्ञिपहमा न्याति विश्न छोडी वामां माया छे. 'सिय चरिमे सिय अचरिमेरे सभ्यमिथ्याल्टिन ते सभ्यभिथ्याष्टियानी शथी प्राप्ति थशे नही ते यम छ भने रीथी नेतना प्राप्ती थशे ते 'पुहत्तण चरिमावि अचरिमावि' २ शत शवयननमायथी वा२ यरम भने वार
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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