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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका २०१८ उ०१ सू०१ प्रथमाप्रथमत्वे जीवद्वारनिरूपणम् ५४एँ पढमा अपढमा' नो प्रथमाः अनादौ संसारे जीवत्वस्यानादि सिद्धित्वात् किन्तु अभथमा एव अप्राप्तेरभावात् इति, 'एवं जाव वैमानिया' एवं यावत् वैमानिकाः यथा जीवत्व प्राप्तपूर्वमेव नामाप्तपूर्व तथैव नारकत्व । दिवैमानिकपर्यन्तमपि प्राप्तपूर्वमेव नाप्राप्तपूर्वमितिभावः । 'सिद्धा णं पुच्छा' सिद्धाः खलु पृच्छा, सिद्धाः खलु भदन्त ! प्रथमा अप्रथमा वेति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोमा' हे गौतम | 'पढमा नो अपदमा' प्रथमाः नो अपथमाः सिद्धस्वस्य इतः पूर्व- ममाप्तत्वेनाप्राप्तप्राप्ततया प्रथमानि तु अप्रथमा पूर्व प्राप्तेरभावादिति । इति जीवविषयकं प्रथमं द्वारम् । प्रथम नहीं है । किन्तु अथम है- क्योंकि अनादि काल से इस अनादि संसार में जीवों की यह पर्याय उनके साथ ही चली आ रही है । अतः इसका सम्बन्ध उनके साथ अमुक समय से हुआ है ऐसा नहीं कहा जा सकता है - इसलिये यह उनकी पर्याय अप्रथम ही है, 'एवं जाव मानिया' इसी प्रकार का कथन इस जीवत्व पर्याय का यावत् वैमानिक जीवों तक में जानना चाहिये । अर्थात् वैमानिक तक के जीवों में - चौबीस दण्डकों में यह पर्याय अप्रथम ही है । प्रथम नहीं है । 'सिद्धाणं पुच्छा' सिद्धों में पर्याय सादि होने से प्रथम हे अप्रथम नहीं है । ऐसा यह उत्तर प्रभुने सिद्ध पर्याय प्रथम है या अप्रथम है अर्थात् सिद्ध प्रथम है या अप्रथम है ? इस प्रश्न के उत्तर में दिया है । सिद्धाणं पुच्छा' यह सूत्र गौतमने शङ्करूप से उपस्थित किया है- - तथ प्रभुने 'गोयमा ! पढमा ! પ્રથમ છે. કેમ કે–અનાદિકાળથી આ અનાદિ સ’સારમાં જીવાની આ પર્યાય તેઓની સાથે જ ચાલી આવે છે, જેથી તેના સમ્મુધ તેએની સાથે અમુક સમયથી થયેા છે એવું નથી. તેથી આ તેએાની પર્યાય અપ્રથમ જ છે. " एव जाव वैमाणिया" आ रीतनु अथन मा लत्रयणानी पर्यायनी यावत् વૈમાનિક જીવે સુધીમાં સમજવા અર્થાત્ વૈમાનિક સુધીના જીવાના ચાવીસ દડકામાં આ પર્યાય અપ્રથમ ४ छे. प्रथम नथा "सिद्धाणं पुच्छा ' સિદ્ધોમાં સિદ્ધત્વ પર્યાય સાદિ હાવાથી પ્રથમ છે, અપ્રથમ નથી. આ પ્રમાણેના ઉત્તર પ્રભુ એ સિદ્ધપર્યાય-પ્રથમ છે ? કે અપ્રથમ छे ? અર્થાત્ સિદ્ધ પ્રથમ છે? કે અપ્રથમ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપે કહ્યું છે. “सिद्धाणं पुच्छा " मा सूत्रांश गौतम स्वाभीये अश्न ३ये अडेस छे, त्यारे
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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