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________________ भगवती - ४९३ स्यापि ग्रहणं कर्तव्यमिति । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'पुढवीकाइयाणं तओ समुग्धाया पण्णत्ता' पृथिवीकायिकानां त्रयः समुद्घावाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा 'वेयणासमुग्धाए' वेदनासमुद्घातः १, 'कसाय समुग्घाए ' कषायसमुद्घातः २, मारणंतियसमुग्धाए' मारणान्तिकसमुद्घाव: ३, तत्र 'मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणमाणे देसेण वा समोहणइ सम्वेण वा समोहणइ मारणांतिकसमुद्घातेन समवहनन् देशेन वा समवहन्ति सर्वेण वा सम वहन्ति । अयं भाव:-यदा मारणान्तिकसमुद्घातगतो जीवो म्रियते तदा ईलिकागत्योत्पत्तिदेशं प्राप्नोति तत्र च जीवदेशस्य पूर्वदेहे एव स्थितित्वात् देशस्य चोत्पत्तिदेशे प्राप्तत्वात् देशेन समवहन्तीति कथ्यते यहा तु मारणान्तिकसमुद्घायावत् शब्द से यही 'पुब्धि वा' से लेकर संपाउणित्ता' तक का सब पाठ ग्रहण किया गया है। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयमा । हे गौतम; पुढवीकाइए ण तओ समुग्धाया पण्णत्ता' पृथिवीकायिक जीवों के तीन समुद्घात कहे गये हैं और वे 'तं जहा' इस प्रकार से हैं-'यणा समुग्याए, कंसापस मुग्याए, मारणंतियसामुग्याए' वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, और मारणान्तिकसमुद्घान मारणतियतमुग्धाएंणं समोहणमाणे देसेण वा समोहणइ, सम्वेण वा समोहणई' जीव जप मारणान्तिकसमुद्घात करता हुआ ही मरण को प्राप्त हो जाता है तप 'वह ईलिका गति से उत्पति योग्य स्थान में जाता है तब उसके कुछ आत्मप्रदेश तो-उत्पत्ति स्थान में पहुंच जाते हैं और कुछ प्रदेश पूर्वदेह में रहते हैं, ऐसी स्थिति में वह जीवं देश से समवहत होता है इसीलिये देश से संमवंहत होता है ऐसा कहा गया है। और जब मारणा- शयी "पुनि वा" मे ५४थी छने "संपाउणित्ता' सुधीना सधणे18 6 थये। छ. भा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ -“गोयमा" गीत "पुढवीकाइयाणं तओ समुग्धाया पाणचा" पृथ्वी वानव समुधात हो, भने "तंजहां" मा शत छ. "वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्याए, मारणंतिय समुग्घाए" ना समुद्धात, ४षय समुद्धात मन मारणांति संभुधात "मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणमाणे देसेण वा समोहणइ सव्वेण वा समोहणई" જીવ જ્યારે મારણાંતિક સમુદૂઘાત કરતાં કરતાં જ મરી જાય છે, ત્યારે તે ઈલિકા ગતિથી ઉત્પત્તિ યોગ્ય સ્થાનમાં જાય છે, ત્યારે તેના કંઈક આત્મપ્રદેશે ઉત્પત્તિ સ્થાનમાં પહોંચી જાય છે. અને કંઇક આત્મપ્રદેશ પહેલાના શરીરમાં રહે છે. એ સ્થિતિમાં તે જીવ દેશથી સમહત (આઘાત પ્રત્યાઘાત
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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