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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ८ सू० १ लोकस्वरूनिरूपणम् २७३ भवन्ति । 'अहवा एगिदिय देसाय अणिदिय देसाय बेइंदियस्स य देसे' अथवा एकेन्द्रियदेशाश्व अनिन्द्रियदेशाश्च द्वीन्द्रियस्य च देशः 'अहवा एगिदिय देसाय अणिदियदेसाय वेइंदियाण य देसा' अथवा एकेन्द्रियदेशाश्च अनिन्द्रियदेशाश्च द्वीन्द्रियाणां च देशाः । अत्र प्रथमो द्विकसंयोगः। त्रिकसंयोगेषु च द्वौ द्वौ भङ्गौ कार्यों तेषु मध्यमो भगः 'एगिदियदेमाय अणिदियदेसाय बेईदियस्स य देसा' इत्येवं रूपको न भवति द्वीन्द्रियरय च देशाः इत्यस्य लोकान्तोपरितनभागे ऽसंभवात् यतो द्वीन्द्रियस्य लोकोपरितनचरमान्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन गत. स्यापि तत्र लोकान्तोपरिचरमान्ते देशएक संभवति न तु प्रदेशद्धिहानिकृतलोकदन्तकरशाद नेकपतरात्मकपूर्वचरमान्तरदेशा: लोकस्योपरितनचरमान्तअनिन्द्रिय के देश नियमतः होते है । 'अहवा-एगिदिश देसा य अणिदिय देसाय बेइंदियस्स यं देसे' अथवा वे एकेन्द्रिय के देश हैं, और अनिन्द्रिय के देश हैं तथा वहां वेइन्द्रिय जीव का एकदेश है, 'अहवा एगिदिय देसा य, अणिदिय देसाय, बेहादियाण य देसा' अथवा वे एकेन्द्रिय के देश हैं, अनिन्द्रिय के देश है, और वे इन्द्रियों के देश हैं, यहां प्रथम भंग हिकसंयोगी है, त्रिक संयोगी अंगो में दो दो भंग कहना चाहिये, इनमें मध्यम भंग 'एगिदियदेसाय अगिंदियदेसा य, बेई. दियस्स य देसा' ऐसा है सो वह भंग यहां नहीं होता हैं क्योंकि वेहन्द्रिय जीव के अनेक देशों का लोकान्त के उपरितन भाग में होना असंभव है। क्योंकि द्वीन्द्रिय के-लोक के उपरितन घरमान्त में मारणान्तिक समुद्घात द्वारा जाने पर भी वहां उसका देश ही संभवित होता है। मान्द्रियना है। नियमत: डाय छे. "अहवा एगिदियदेसा य, अणिदियदेसाय बेइंदिग्रस्त देसे" अथवा अन्द्रियन। हेश छे. मने मनीन्द्रियना ५ देश छ. तथा यो मन्द्रिय पनी से देश छ. "अहवा एगिदिय देखाय अणिदिय देसाय, बेइंदियाणय देसा" अथवा मेन्द्रिय देश छे. मान्द्रियना हेश છે અને બે ઈન્દ્રિના પણ દેશ છે. અહિયાં પહેલે ભંગ કિક સગી છે. ને ત્રિક સંચગી ભંગામાં બબ્બે ભંગ કહેવા જોઈએ તેમાં મધ્યમ ભંગ "एगिदियदेखा य, अणिदियदेगा य, वेइंदियरस य देसा" मे प्रभारी छ. बी . થતું નથી, કેમકે બે ઈન્દ્રિયવાળા જીના અનેક દેશનું. લોકાન્તની ઉપરના ભાગમાં હોવાનું સંભવતું નથી. કેમકે દ્વીન્દ્રિયનું લેકના ઉપરના અરમાન્ડમાં મારણાન્તિકના સમુદ્દઘાતથી જવા છતાં પણ ત્યાં તેના દેશની જ સંભવના હોય છે. કેમકે પ્રદેશની હાની વૃદ્ધિ દ્વારા થવા વાળી વિષમતાથી અનેક भ० ३५
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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