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________________ २०४ . भगवतोसूत्र हे गौतम ! 'संवुडे वि सुविणं पासई' संहतोऽपि स्वप्नं पश्यति 'असंवुडो वि सविणं पासई असंहतोऽपि स्वप्नं पश्यति 'संवुडासंबुडे वि मुविणं पासई' संटतासंवृतोऽपि स्वप्नं पश्यति देशविरतः श्रावक इत्यर्थः सर्वेऽपि स्वप्नं पश्यन्तीत्यर्थः । ननु यदि संवृतोऽपि स्वप्नं पश्यति, असंहतोऽपि स्वप्नं पश्यति, संहतासंवृतोऽपि स्वप्न पश्यति, तदा संहतासंवृतादीनां को भेद इत्याशंक्य एतेषां वैलक्षण्यप्रतिपादनाय आह-संवुडे सुविणं' इत्यादि 'संवुडे सुविण पासह अहातच्च पासई' संवृतः स्वप्नं पश्यति यथातथ्य पश्यति तथ्य-सत्यमनतिक्रम्य वर्तमानं यथातथ्यम् सत्यमेव निवृत्ति करनेवाला है वह 'सुविणं पाल' स्वप्न देखता है १ 'असंवुडे सुविण पाल' या जो असंवृत है वह स्वप्न देखता है ? या 'संधुड़ासंबुडे सुविणं पास जो संवृतासंरत है वह स्वप्न देखता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम !' 'संबुडे वि सुविणं पासइ' जो संकृत होता है वह भी स्वप्नदेखता है। 'असंबुडेवि विणं पालइ' जो असंवृत होना है वह भी स्वप्न देखता है। तथा 'संवुडासंघुडे वि सुविणं पासई' जो संवृत्तासंवृतदेशविरतश्रावक है वह भी स्वप्न देखता है। अर्थात् ये तब भी स्वप्न देखते है । इस प्रकार के कथन से यहां पर ऐसी आशंका हो सकती है कि जब संवृत भी स्वप्न देखता है, असंवृत्त भी स्वप्न देखता है, और संवृतासंकृत भी स्वप्न देखता है तो फिर संवृत्तासंवृतादिकों में भेद क्यो रहा ? इस शंका की निवृत्ति के लिये इन में विलक्षणता-भेद-प्रतिपादन के लिये ऐसा कहा गया है-कि-'संवुडे सुविणं पासह, अहातच्च पालई संकृत जो स्वप्न देखता है वह उस अथवा 'असंवुडे णं सुविण पासई' २ अस1 छ। २१ मे छ अथवा तो 'संवुडासंवुडे सुविण पावई' २ सनतासनत छ त त छ ? तेना उत्तरमा महावीर प्रशु ४२ छ'गोयमा' गीतम ! संवु डे वि सुविण पासई' २ सनत डाय छे त ५ २१५ पुन्य छ 'असंवुडा वि सुविणं पासइ' २ मत छ। छे. ५५ स्वादु छ तथा 'संवुडा संवुडे वि सुविण पासइ' र सनतास व्रत-शविरति श्राप छे. ते ५५ स्वप्न જુએ છે. અર્થાત્ સંગ્રત-અસંગ્રત અને સંગ્રતાસંગ્રત બધા સ્વપ્ન જુએ છે. આ કથનથી અહિયાં એવી શંકા થાય છે જે સંવત પણ સ્વપ્ન દેખે છે. અસ વ્રત પણ સવપ્ન દેખે છે. અને સંગ્રતા–સંવત પણ ન જુએ છે. તે પછી આ ત્રણેમાં ભેદ શું રહ્યો? આ શંકાના નિવારણ માટે તેમાં ભેદ मामतभा प्रभु भा प्रमाणे ४ छ. है, 'संवुडे सुविणं पासइ अहतच्चं पासई'
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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