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________________ प्रमयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ५ १० १ देवागमनादिशक्तिनिरूपणम् १३१. वयासी' यावद् नमस्थित्वा एवमबादीद , अत्र यावत्सदेच वन्दते नमस्यति वन्दित्वा एतेषां ग्रहणं भवतीति । शक्रो भगवत्सकाशमागत्य किमुक्तवान् ? तबाह-'देवेणं इत्यादि 'देवेणं भंते !' देवा खल्ल भदन्त ! 'महडिए जाव महासोक्खे' महद्धिको यावद् महासौख्यः अत्र यावत्पदेन 'महज्जुइए महब्बले महाजले' एतेषां ग्रहणम् 'बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू आगमित्तए' वाद्यान पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभु रागन्तुमिति प्रश्नः ? यद्यपि, सर्वेपि प्राणिनः बाबान युगलान् अनादाय न कामपि क्रियां कर्तुं शक्नुवन्ति, इति सर्वानुभवसिद्धम् , तथापि, देवस्य महर्दिकत्वात् बाह्यपुद्गलान् अपरिगृह्यापि कदाचिदागमनं संभवेदिति संभावनया शक्रस्य प्रश्नः । प्रभुको नमस्कार कर इस प्रकार से पूछा यहां पद यावत्पद से 'वदह णमंसह वंदित्ता इन पदों का संग्रह हुओ है। शक ने प्रभु के पास आकर क्या पूछा अब इसे ही यहां से प्रकट किया जाता है-'देवेणं भंते! महिडिए जोव महासोक्खे' हे भदन्त ! जो देव परिवार आदिरूप ऋद्धि विशिष्ट है एवं महासुख संपन्न है नथा यावत्पद प्राय-'महज्जुहए, महन्पले, लहाजहो' महानुभाववाला है महाशुतिवाला है महापलवाला है, और महायज्ञवाला है, वह पाहिए पोगाले अपरिथाइत्ता बाहर के पुदगलों को बिना ब्रहण किये क्या आने के लिये समर्थ है ? यद्यपि समस्त प्राणी पात्य पुद्गलों को बिना ग्रहण क्षिये किसी भी क्रिया को करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं यह अनुभव सिद्ध बात है फिर भी देव भद्धिक होने से घ्यायपुद्गलों को ग्रहण किये बिनाही कदा. चित् आगमनरूप क्रिया को कर लकना हो? इस संभावना से शक ने एवं वयासी" तो प्रभु ना२ श या प्रभारी पूछयु महिया यावत , पहथी “वदते नमसति वंदित्वा" हनी , पहना सह थयो छे. શકે પ્રભુની પાસે આવીને શું પૂછયું તે વાત હવે પ્રગટ કરવામાં આવે છે. "देवे णं भवे ! महिइढिए जाव महासोक्खे" सन् ! २ व परिवार विगैरे द्धिवाणे छे. तभ पा सुभवाण छ महिया यावत ५४थी “महज्जु. इर महव्यले महाजसे" भापतिवाणा, महामाया मने महाशयाणा पहोना सई थय। छ. म विशेषवाण व "बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता" माना Y Y ४ा सिवाय भावी शछ? ने सघणा પ્રાણું બહાર પુલે ગ્રહણ કર્યા સિવાય કોઈ પણ ક્રિયા કરવાને સમર્થ થઈ શકતા નથી, આ અનુલવ સિદ્ધ વાત છે. તે પણ દેવ મહદ્ધિક હોવાથી બાહા પુજને ગ્રહણ કર્યા સિવાય કદાચ આગમન રૂપ ક્રિયા કરી શકતા હાય આ સંભાવનાથી શકે આ પ્રશ્ન કર્યો છે. તેના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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