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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ३ सु० १ कर्मप्रकृतिनिरूपणम् प्रकृतीवेदयति, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'अम्मायडीमो' अष्टकर्मप्रकृती: वेदयतीति 'एवं जहा पनवणाए वेयावेयउद्देसओ' एवं यथा प्रज्ञापनायां वेदवेद उद्देशः 'सो चेव निरवसेसो भाणियन्वो' स एव निरक्शेपो भणितव्यः । 'वेय वेय उद्देसओ ति' वेदवेदने एकस्याः कर्मप्रकृतेः वेदे अन्यासां कर्मश्कृतीनां वेदनम् यत्रोद्देशके कथ्यते स वेदवेदः स एव उद्देशक इति वेदवेदोद्देशकः प्रज्ञापनासूत्रस्य सप्तविंशतितमे पदे वेदवेदोद्देशकः । वेदवेदोद्देशकधार्थत एवम्-गौतम एकस्याः कर्मप्रकृतेर्वेदनसमयेऽष्टौ कर्मप्रकृतीर्वेदयति जीवः । मोहस्य क्षये उपशमे वा सप्तप्रकृतीर्वेदयति शेषघातिकर्मक्षये सति चतसृणामेव वा वेदनं भवतीति । यथा जीवसामान्यविपये एकस्याः कर्मपकृतेर्वेदनसमये अन्यासामष्टानां सप्तानां पण्णां वा वेदनं भवति तथैव मनुष्येपि एकस्याः कर्मप्रकृतेर्वेदनेऽन्या. कर्म का चेदन करता हुआ जिव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? 'एवं जहा पन्नवणाए वेयावेयउद्देसओ, लोचेव निरसेलो भाणि. यन्वो' हे गौतम ! जैला प्रज्ञापना में वेवेद उद्देश कहा गया है, वह सब यहां कह लेना चाहिये । वेयवेयउद्देसओ त्ति' एककर्मप्रकृति के वेदन में अन्य कर्म प्रकृतियों का वेदना जिस उद्देशक में कहा गया है वह वेदवेद ही वेदवेद उद्देशक है-वेदवेदोदेशक अर्थ की अपेक्षा इस प्रकार से है-हे गौतम ! एक कर्मप्रकृति के वेदन के समय में जीव आठ, कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है। मोह के क्षय में या उपशम में सात कर्म प्रकृतियों का वेदन करता है। शेषघातिया कर्मों के क्षय होने पर चार ही प्रकृतियों का वेदन होता है। जिस प्रकार से जीव सामान्य के विषय में एक कर्मप्रकृति के वेदन के समय में अन्य आठ प्रकृतियों भी प्रतिमानु. ३४न ४२ 2. तना उत्तरमा प्रभु . “ एवं जहा पन्नवणाए वेयावेयउद्देसओ, सोचेव निरवसेसो भाणियव्यो" रवी शत प्रज्ञापना સૂત્રમાં ૨૭ વેદવેદ ઉદેશે કહેવામાં આવ્યું છે. તે તમામ અહિંયા સમજી बेवा. “वेयवेय उद्देसओ ति" मे मप्रतिना वहनमा भी इभ प्र. तिव्या वहन देशमा म मान्य छे. ते 'वह' देश थे. વેદવેદ ઉદેશક અર્થની અપેક્ષાએ આ રીતે છે–હે ગૌતમ! એક કર્મપ્રકૃતિના વેદન સમયે જીવ આઠ કર્મપ્રકૃતિઓનું વેદન કરે છે મેહના ક્ષયમાં અગર ઉપશમમાં (તણાના નાશમાં) સાત કમપ્રકૃતિઓનું વેદન કરે છે. બાકીના ઘાતિયા કમેને ક્ષય થાય ત્યારે ચાર જ કર્મપ્રકૃતિઓનું વેદના થાય છે. તે રીતે જીવ સામાન્યના વિષયમાં એક કર્મપ્રકૃતિના વેદન સમયે બીજી આઠ भ०१२
SR No.009322
Book TitleBhagwati Sutra Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages714
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size45 MB
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