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________________ " प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० ४ सू० १० अवगाहनाद्वारनिरूपणम् ६९७ भगवानाह - 'नस्थि एक्को वि' तत्र नास्ति एकोऽपि अधर्मास्तिकायम देशोऽव गाढः अधर्मास्तिकायदेन तत्मदेशानां सर्वेषां संग्रहात् प्रदेशान्तराणां चाभा वाद, 'शेषं जहा धम्मत्थिकायस्स' शेषम् उक्कापेक्षया यदवशिष्टम् आकाशास्तिकायजी वास्तिकापुद्रलास्तिकायाद्धासमयविषयक गमकं यथा धर्मास्तिकायस्य प्रतिपादितं तथैव प्रतिपादनीयम् ' एवं सव्वे, लङ्काणे नत्थि एक्को वि भाणियव्वं, परट्ठाणे आदिल्लगा तिनि असंखेज्जा भाणियन्त्रा, पच्छिल्लगा विनिता भाणियन्त्रा जाव अद्वासमओत्ति जाच केवइया अद्धासमया ओगादा ? ' नत्थि एक्कोsवि' एवं पूर्वोक्तरीत्या सर्वे धर्मास्तिकायादयोऽद्धासमयान्ता वक्तव्याः किन्तु स्वस्थानके स्वस्थ एकोऽपि प्रदेशो नास्ति इति भाणितव्यं युक्ते कहते हैं- 'नत्थि एकको वि' हे गौतम ! वहां पर अधर्मास्तिकाय का एक भी प्रदेश अवगाढ नहीं होता है । क्योंकि 'अधर्मास्तिकाय ' इस शब्द द्वारा समस्त उसके प्रदेशों का संग्रह हो जाता है । इसलिये प्रदेशान्तर बचते नहीं है । ' सेसा जहा धम्मत्थिकायस्स' यहां पर अब जो आकाशास्तिकाप, जीवास्तिकाप, पुद्गलास्तिकाय, अद्वासमय इनके जो गम नहीं कहे गये हैं उन्हें धर्मानिकाय के सम्बंध में कहे गये अनुसार जानना चाहिये ' एवं सव्वे सहाणे नत्थि एक्को वि भाणि परट्ठाणे आदिलगा तिनि असंखेज्जा भाणियन्त्रा, पच्छिलगा तिनि अत्ता भाणिपन्या, जात्र अद्धासमत्ति जाव केवइया अद्धासमया ओगाढा, नत्थि एक्को वि" इस प्रकार पूर्वोक्त रीति से समस्त धर्मास्तिकाय से लेकर अद्धासमय तक के द्रव्य कहना चाहिये किन्तु કાય भहावीर प्रभुने। उत्तर- " नत्थि एक्को वि" हे गौतम! त्यां शोधસસ્તિકાયના એક પણ પ્રદેશ વગાઢ હાતા નથી કારણ કે “અધર્માસ્તિઆ પદ્મ દ્વારા તે સમસ્ત પ્રદેશોના સંગ્રહ થઈ જાય છે તેથી अलग अधर्मास्ति य प्रदेश संमंत्री शतो नयी 'सेसं जहा वम्मत्धिकायरस " ખાકીના માકાશાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય, પુદ્ગલાસ્તિકાય અને અદ્ધાસમય વિષયક પ્રશ્નોત્તરા, ધર્માસ્તિકાયના વિષયમાં જેવા પ્રશ્નોત્ત। આપ્યા છે, એવા જ સમજવા. ܕܕ 66 ' एवं सच्चे खाणे नत्थि एक्को वि भाणियव्वं, परद्वाणे आदिलगा तिनि असंखेज्जगा भाणियन्त्रा, पच्छिलगा विन्नि अनंता माणियव्वा, जाव अद्धासमयो त्ति जाव केवइया अद्धाचमया ओगादा, नत्थि एक्को वि" मेन प्रभा પૂર્વોક્ત પદ્ધતિ પ્રમાણે ધર્માસ્તિકાયથી લઈને અટ્ઠાસમય પર્યન્તના દ્રશ્યનું भ० ८५
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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