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________________ भगवतोसूत्रे स्यावगाहासंभवात् । गौतमः पृच्छति-केवइया जीवत्थिकायपएसा ओगाढा?' तत्र कियन्तो जीवास्तिकायदेशा अत्रगाढ। भान्ति ? भगवानाह-'सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा, अणंता' तत्र जीवास्तिकायप्रदेशाः स्यात्-कदाचित् अवगाढा भवन्ति, स्यात्-कदाचित् नो अवगाहा भवन्ति यदा अगाढा भवन्ति, उक्तयुक्तेः । 'एवं जाव अद्धासमया' एवं-पूर्वोक्तरीत्यैव, यावत्-पुद्गला. स्तिकायमदेशा स्तत्र स्यात् अवगाहा भवन्ति, स्यात् नो अबगाढा भवन्ति, यदा अवगाहा स्वदा अनन्ता एवावगाहा भवन्ति, एवं तत्र अद्धासमया अपि स्यात् के कारण विधान नहीं है। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं'केवइया जीवस्थिकायपएसा ओगाढा' हे भदन्त ! जहां पर आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश स्थित है, वहां पर जीवास्तिकाय के कितने प्रदेश अवगाढ-स्थित हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'सिय ओगाढा, सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा, अर्णता' हे गौतम! यहां पर जीवास्तिकाय के प्रदेश कदाचित् अवगाढ भी हैं और कदाचित् अवगाढ नहीं भी हैं। यदि वे वहां पर अवगाह हैं-तो अनन्त मात्रा में ही हैं। कदाचित् अप्रगाढ हैं और कदाचित् अवगाढ नहीं हैं ' इस विषय में युक्ति कही जा चुकी हैं। अर्थात् आकाशास्तिकाय लोकालोकस्वरूप होता है । 'जीवास्तिकाय का सद्भाव लोक में है-अलोक में नहीं है। 'एवं जाच अद्वासमया' इसी प्रकार आकाशास्तिकाय प्रदेश के अवगाढ स्थान में पुद्गलास्तिकाय प्रदेश अवगाढ होते भी हैं और नहीं भी होते हैं। यदि वे वहां पर अवगाढ होते हैं-तो अनन्तमात्रा में ही होते हैं। गौतम स्वामीना प्रश्न-"केवइया जीवस्थिकायपएसा ओगाढा ?" है ભગવન્! જ્યાં આકાશાસ્તિક ને એક પ્રદેશ અવગાઢ (રહેલે) છે, ત્યાં જીવાસ્તિકાયના કેટલા પ્રદેશ અવગાહિત હોય છે? महावीर प्रभुना उत्त२-“ सिय ओगाढा, सिय नो ओगादा, जइ ओगाढा अणता" गौतम! त्यो पास्तियना प्रदेश या२४ सपा होय અને કયારેક અવગાઢ હોતા નથી. જે તેઓ ત્યાં અવગાઢ હોય છે તે અનંત માત્રામાં જ અવગાઢ હોય છે. કારણ કે આકાશાસ્તિકાય લોકાલેક રૂપ હોય છે. જીવાસ્તિકાયને સદુભાવ લેકમાં જ હોય છે અલકમાં ते। समाप छ. "एव जाव अद्धासमया" का प्रमाणे मास्तिय. પ્રદેશના અવગાઢ સ્થાનમાં પુદ્ગલાસ્તિકાય પ્રદેશને અવગાઢ કયારેક હોય છે પણ ખરો અને કયારેક નથી પણ છે, જે તેઓ ત્યાં અવગાઢ હોય છે, તે અનંતમાત્રામાં જ હોય છે એ જ પ્રમાણે ત્યાં અદ્ધાસમય પ્રણ
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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