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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१३ उ० १सू०१ पृथिव्यादिनिरूपणम् ४६३ उववज्जति' हे गौतम ! अस्यां खलु रत्नपभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु-जरकावासलक्षेषु संख्येयविस्तारेषु नरकेषु जघन्येन एको वा, द्वौ वा; प्रयोवा, नैरयिकाः, उत्कृष्टेन संख्येयाः नैरयिका उपपद्यन्ते, 'जद्दण्णेणं एकोपा, दो वा, विनिया, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा उत्रवनंति' जघन्येन एको वा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येयाः कापोतलेश्या:-कापोतलेश्यावन्तः उपपद्यन्ते'जहणणं एको वा, दो वा, तिभिवा उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उववज्जति' जघन्येय एको वा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येयाः कृष्णपक्षिका उपपद्यन्ते, 'एवं मुक्कपक्खियावि, एवं सन्नी, एवं असनी वि, एवं भवसिद्धिया, एवं अभवसिद्धिया' एवं-पूर्वोक्तरीत्या, शुक्लपक्षिका अपि जघन्येन एकोवा, द्वौ वा, त्रयो वा, तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उववज्जति' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी में ३० लाख नरकावासों में जो कि संख्यातयोजन विस्तारवाले हैं जघन्य से एक, दो अथवा तीन नैरयिक उत्पन्न होते हैं, और उत्कृष्ट से संख्यात नैरथिक उत्पन्न होते हैं-'जहणेणं एको वा दो वा तिन्निवा, उक्कोसेण संखेज्जा काउलेस्ता उववज्जति' जघन्य से एक, या दो अथवा तीन और उत्कृष्ट से संख्यात कापोतलेश्यावाले जीव उत्पन्न होते हैं, 'जहणणं एको वा, दो था, तिन्नि वा, उकोसेणं संखे. जां कण्हपक्खियां उववज्जति' जघन्य से एक दो या तीन और उत्कृष्ट से संख्यात कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते है-एवं सुमक्खिया वि एवं सन्नी एवं असंन्नी वि, एवं भवसिद्धिया, एवं अभवसिद्धिया' इसी प्रकार से शुक्लपाक्षिक जीव भी जघन्य से एक, या दो या तीन उत्पन्न एक्कोवा, दोवा, सिन्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उववज्जति" ३ गौतम। રતનપ્રભા પૃથ્વીના ૩૦ લાખ નરકાવાસમાંના જે સંખ્યાત એજનના વિસ્તાર વાણે નરકાવાસે છે, તેમાં એક સમયમાં ઓછામાં ઓછા એક, બે અથવા ત્રણ નારકે ઉત્પન્ન થાય છે અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાત નારકે ઉત્પન્ન थाय छे. “जहण्णेणं एक्कोवा, दो वा, तिन्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा काउलेस्सा' उववज्जति" तमामे समयमा मामा माछा मे, मे अयत्र भने' पधारेभा पधारे स-या यातलेश्यावा ना२ पर थाय छे. “जह ण्णेणं एक्कोवा, दो वा, तिन्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा कण्हपक्खिया उववज्जति" ત્યાં એક સમયમાં ઓછામાં ઓછા એક, બે અથવા ત્રણ અને વધારેમાં વધારે सध्यात साक्षि अत्पन्न थाय छे. “ एवं सुक्कपक्खिया वि, एवं सन्नीः एवं असन्नी वि, एवं भवसिद्धिया, एवं अभवसिद्धिया" मे प्रभारी . शु.
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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