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________________ भगवतीसूत्रे ३८ नान्यत्तत्तेभ्य इति भावार्थः, 'वेइंदियतेइंदिय जाव वेगाणियाणं जहा नेरझ्याणं द्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय यावत् चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिगतिर्यग्योनिझमनुष्यवानव्यन्तरज्योतिषिकवैमानिकानाम् आत्मा यथा नैरयिकाणां प्रतिपादितस्तथा प्रतिपत्तव्यः, तथा च द्वीन्द्रियादि वैमानिकान्तानामात्मा स्यात् ज्ञानरूपो भवति, स्यादज्ञानरूपो भवति, ज्ञानं पुन स्तत्सम्बन्धिनियमादात्मा भवत्येवेति भावः। गौतमः पृच्छति-'आया भंते ! दंसणे, अन्ने दसणे ?' हे भदन्त ! किमात्मा दर्शनरूपो भवति ? किंवा आत्मनः अन्यदर्शनं भवति ? भगवानाह-गोयमा। आया नियमं दसणे, दंसणे वि नियमं आया' हे गौतम ! आत्मा नियमाद् दर्शनरूपो भवत्येव, एवं दर्शनमपि नियमादात्मा भवत्येवा, तथा च सम्यग्दृष्टिमिथ्या. कहने का तात्पर्य ऐसा है कि वह अज्ञान उनकी आत्मा से भिन्न नहीं है 'बेइंदियतेइंदिय जाय वेमाणियाणं जहा नेरइयाण' दो इन्द्रियों की, तेइन्द्रियों की यावत्-चौ इन्द्रियों की, पंचेन्द्रिय-तियञ्चों की, मनुष्यों की, वानव्यन्तरों की, ज्योतिषिकों की, वैमानिकों की आत्माकथंचित् ज्ञानस्वरूप होती है और कथंचित् अज्ञानस्वरूप होती है और इनका जो ज्ञान है वह नियम से आत्मस्वरूप होता है-अर्थात् आत्मा से अभिन्न होता है। अब गौतम भु से ऐसा पूछते हैं-'आया भंते ! दसणे अन्ने दंसणे हे अदन्त ! क्या आत्मा दर्शन रूप होता है ? या वह आत्मा से भिन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम! 'भाया नियम दसणे, दसणे विनियमं आया आत्मा नियम से दर्शनरूप होता है, और वह दर्शन भी नियम ले आत्मरूप होता है! मात्मायी मिन्न तु नथी. " वेइंदिय, तेइंदिय जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं" हान्द्रयोना, श्रीन्द्रियाना, तुरिन्द्रियाना, पथन्द्रियतिय याना, મનુષ્યોને, વાનચન્તને, તિષિકેને અને વૈમાનિકને આત્મા, નારકેના આત્માની જેમ કયારેક જ્ઞાનસ્વરૂપ હોય છે અને કયારેક અજ્ઞાનસ્વરૂપ હોય છે. અને તેમનું જે જ્ઞાન છે, તે નિયમથી જ આત્મસ્વરૂપ હોય છે, એટલે કે આત્માથી અભિન્ન હોય છે. गौतम स्वामीना प्रश-" आया भंते ! देखणे, अन्ने देखणे ?" भगवन् ! શું આત્મા દશનરૂપ હોય છે કે તે દર્શન આત્માથી ભિન્ન હોય છે? महावीर प्रभुनी उत्तर-“गोयमा!" गौतम! "आया नियम दसणे, देखणे वि नियम आया" मामा नियमथी शन३५ डाय छ, भने તે દર્શન પણ નિયમથી જ આત્મરૂપ હોય છે, કારણ કે સમ્યગ્દષ્ટિ અને
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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