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________________ भगवतीसूत्रे ३३६ सप्तस्वपि पृथिवीषु पूर्वोक्तासु उपपद्यन्ते । गौतमः पृच्छति - 'धम्मदेवा णं भंते ? - अनंतरं पुच्छा' हे भदन्त ! धर्मदेवाः खलु अनन्तरं धर्मदेव भवानन्तरम्, उदच्य कुत्रोपपद्यन्ते ? इति पृच्छा, भगवानाह - 'गोयमा ! नो नेरइएस उववज्जेज्जा णो तिरिक्खजोगिएसु, णो मणुस्सेमु उववज्जंति, देवेसु उववज्जंति' हे गौतम! धर्मदेवाः नो नैरविकेषु उपपद्यन्ते, नो विर्यग्योनिकेपु, नो वा मनुष्येषु उपपद्यन्ते, किन्तु देवेषु उपपद्यन्ते । गौतमः पृच्छति - 'जइ देवेसु उववज्जंति, किं भवणवासि पुच्छा' हे भदन्त ! यत्खलु धर्मदेवा उद्वर्तनानन्तरं देवेषु उपपद्यन्ते, तत् किं भवनवासिषु - असुरकुमारादिपु ? किंवा वानव्यन्तरेषु ? किंवा ज्योतिषिकेषु ? हे गौतम | नरदेव उद्यतन के बाद सातों ही पृथिवियों के नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं। अब गौतन प्रभु से ऐसा पूछते हैं-' धम्मदेवा णं भंते ! अनंतरं पुच्छा' हे भदन्त | धर्मदेव अपने धर्मदेवभव को छोड़ते ही कहां उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ' 'हे गौतम ! 'नो नेरइएस उववज्जंति, णो तिरिक्खजोगिएसु, णो मणुसेसु उबवति, देवेसु उचवज्जंति ' धर्मदेव नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते हैं, तिर्यों में उत्पन्न नहीं होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते हैं, वे तो देवों में ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि चारित्र के सद्भाव में देवायु के सिवाय दूसरी आयु का बन्ध नहीं होता है । अब गौतम इसी बात को विशेषरूप से प्रभु से पूछते हैं जह देवेसु उववज्जंति, किं भवणवासि पुच्छा' हे भदन्त । यदि धर्मदेव उत्तन के बाद देवों में उत्पन्न होते हैं ? तो क्या वे भवनवासियों में उत्पन्न होते हैं ? गौतंभ स्वाभीन। प्रश्न- " धम्मदेवा णं भंते ! अणंतरं पुच्छा " से लगवन् ! ધર્મ દેવા, પેાતાના ધર્મ દેવાવને છેડીને કયાં ઉત્પન્ન થાય છે? भडावीर अलुने। उत्तर-" गोयमा ! णो नेरइपसु उबवजंति, णो तिरिक्खजोणिसु, णो मणुस्सेसु उववज्जंति देवेसु उववज्जंति " हे गौतम! धर्मदेव નારકામાં ઉત્પન્ન થતા નથી, તિય ચામાં ઉત્પન્ન થતા નથી, મનુષ્યમાં પણ ઉત્પન્ન થતા નથી તે દેવામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે, કારણ કે દેવાયુના મધવાળાને જ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે. " गौतम स्वाभीना अश्न - " जइ देवेसु उववज्र्ज्जति किं भवणवासि पुच्छा હું ભગતમ્ ! જો ધર્મ દેવા પેાતાના ધમ દેવભવના આયુષ્યને પરિપૂર્ણ કરીને દેવામાં ઉત્પન્ન થતા હાય, તેા કયા દેવેશમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? શુ ભવનપતિ.
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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