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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ० ९ सू० २ देवोत्पत्तिनिरूपणम् ३० वि उववज्जति' हे गौतम ! भव्यद्रव्यदेवाः नैरयिकम्य आगत्य उपपद्यते, तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्य उपपद्यन्ते, मनुष्येभ्य आगत्य उपपद्यन्ते, देवेभ्योऽपि आगत्य उपपद्यनरो, 'भेडो जहा वकंतीए सम्वेसु उबवाएया जाव अणुत्तरोकवाइयत्ति' भेद:-अवान्तरणकारी यथा-व्युत्क्रान्तिके-प्रज्ञापनाया: पष्ठपदे प्रति पादितस्तथैवात्रापि प्रतिपत्तव्यः, तथा च 'यदि नैरपिकेश्य आगत्य उपपद्यन्ते तहि कि रत्नप्रभापृथिवी नायिकेभ्य आगत्योपपद्यन्ते ? इत्यादि-भेदो वक्तव्या एवं रीत्या सर्वेषु-नैरयिकादि वैमानिकान्तेषु उपपादयितव्या:-भव्यद्रव्यदेवानामुत्पादवर्णनं कर्तव्यम्, यावत्-पृथिवीकायिकायेकेन्द्रियादि भवनवासिवानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकनवग्रैवेयकपञ्चानुत्तरौपपातिका इति, एतेभ्यः सर्वेभ्यः ज्जंति' भव्यद्रव्यदेव नैरयिकों में से आकर के भी उत्पन्न होते हैं, तिथंचों में से भी आकर के उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में से भी आकर के उत्पन्न होते हैं, तथा, देवों में से भी आकर के उत्पन्न होते हैं। 'भेदो जहा वकंतीए सम्वेसु उववाएयधा जाय अणुत्तरोषवाइयत्ति' अवान्तर प्रकार जैसा प्रज्ञापना के छठे पद व्युत्क्रान्तिपद में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी समझना चाहिये तथा " यदि वे नरयिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं तो क्या रत्नप्रभापृथिवी के नैरथिकों में से आकर के उत्पन्न होते हैं " इत्यादि भेद कहना चाहिये इस प्रकार से भव्य द्रव्यदेवों के उत्पाद का वर्णन नैरपिक से लेकर वैमानिकान्तों में करलेना चाहिये इस प्रकार से इस कथन का सारांश यह है कि भक्प-द्रव्यदेव यावत् पृथिवीकायिकादि से लेकर भवनवासि, वानव्यन्तर, નારકમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે તિય ચામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે, મનુષ્યમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને દેવામાંથી આવીને पर अपन्न थाय छे. "भेदो जहा वक्रतीए सव्वेसु उपचाएयव्वा जाव अणुतरोषवाइयत्ति " प्रज्ञापनासूत्रना ७४ व्युडान्ति ५४मा मवान्तर प्राशनावी પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે, એવી પ્રરૂપણ અહીં પણ સમજવી જોઈએ એટલે કે “જે તેઓ નારકમાંથી આવીને ભવ્યદ્રવ્યદેવ રૂપે ઉત્પન્ન થતા હોય, તે શું રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકમાંથી આવીને ઉભાન થાય છે.” ઈત્યાદિ ભેદેનું કથન થવું જોઈએ આ પ્રકારે નારકાથી લઈને વૈમાનિકે પર્યાના દેવમાંથી આવીને જીવ ભવ્યદ્રવ્યદેવ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે, એમ સમજવું જોઈએ આ કથનને સારાંશ એ છે કે “પૃથ્વીકાયિક આદિથી લઈને ભવનપતિ, વનવ્યંતર, તિષિક, વૈમાનિક, નવરૈવેયક અને પાંચ
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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