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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ०५ सू०२ प्राणातिपातादिविरमणनिरूपणम् १७ पेक्षया पश्चवर्णाः, द्विगन्धा, पञ्चरसाः, चतुःस्पीः मञप्ता जीवापेक्षया तु अवर्णी, अगन्धाः, अरसाः अस्पीः प्रज्ञप्ता, 'वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहां नेरइया: वानव्यन्तरज्योतिपिकवैमानिकाः यथा नैरयिका प्रतिपादितास्तथैव मतिपत्तव्या, तथा च । वानव्यन्तरज्योपिकवैमानिकाः वैक्रियतैजसशरीरापेक्षया ‘पञ्चवर्णी, द्विगन्धाः, पञ्चरसाः, अष्टस्पर्शाः प्रज्ञमाः, कामणशरीरापेक्षया पञ्चवर्णी, द्विगन्धाः पंचरसाः, चतुःस्पर्शाः प्रज्ञप्वाः, जीवापेक्षया तुं अवर्णी, अगन्धा, अरसा, अस्पर्शाः प्रज्ञप्ता इति भावः 'धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिंकाएं, एए सवें अंबन्ना०' धर्मास्तिकायो यावत्-अधर्मास्तिकाय, आकोशास्तिकायः, अद्धासमयः, एते सर्वे अवर्णाः, अगन्धाः, अरसाः, अस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः, 'नवरं पोग्गलंकाए. की अपेक्षा से पांच वर्णीवाले, दो गंधोवाले, पांच रसोंवाले और चार स्पों वाले कहे गये हैं। एवं जीव की अपेक्षा से विना वर्ण के, विना गध के, विना रस के और विना स्पर्श के कहे गये हैं। 'वाणमंतर जोइलियवेमाणिया जहा नेरच्या' वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक ये सब जैसे नैरथिक कहे गये हैं-वैसे कहना चाहिये तथा-वानव्य॑न्तरं ज्योतिष्क, एवं वैमानिक ये वैक्रिय तेजेस शरीर की अपेक्षा से पांच वर्णों वाले, दो गंधोवाले, पांच रसोंवाले और आठ स्पों वाले हैं। गये हैं कार्मणशरीर की अपेक्षा पाँच वर्णवाले, दो गंधोंचाले, पाँच रसों वाले और चारस्पर्शेवाले कहे गये हैं ! जीव की अपेक्षा से विनी वर्ण के, विना गंध के, विनों रल के और विना स्पर्श के कहे गये हैं। धम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए एएसव्वे अवन्ना०'धर्मास्तिकार्य, यावत्-अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अद्धासमय, ये सब विना રસવાળા અને ચાર સ્પર્શીવાળા કહ્યા છે, અને જીવની અપેક્ષાએ વર્ણરહિત, परहित, २सहित, सन २५।२डित, an छ.. "वाणमंतरजोइसियवेमा; णिया जहा नेरइया वायतरे, ज्यातिष: मन वैमानि वाना , દિકના વિષયમાં નારકોના જેવું જ કથક કરવું જોઈએ એટલે કે વિદિય અને તૈજસ શરીરનાં પુલની અપેક્ષાએ તેમને પાંચ વર્ણવાળા, બે ગધે पा, पांय सोपा भने मापवाण छ. म : शरीरना; અપેક્ષાએ તેમને પાંચ વર્ણવાળા, બે ગધેવાળા, પાંચ રસવાળા અને ચાર વાળા કહ્યા છે અને જીવની અપેક્ષાએ તેમને વર્ણરહિત, ગંધરહિત, २सहित मने पेशहित मा छे..... धम्मत्यिकाए जीव 'पोगलत्यिकाए, ऐए सव्वे अवण्णा" तय; અધમસ્તિકાય, આકાશસ્તિક અને અદ્ધાસમય (કળીને વર્ણહિલ, ગધ
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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