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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१२३०४सू०४ औदारिफादिपुद्गलपरिवर्तनिर्वतनानि. १३७ वैक्रियशरीरनिर्माणयोग्यानि द्रव्याणि-पुद्गलद्रव्याणि, वैक्रियशरीरतया गृहीतानि, पद्धानि, स्पृष्टानि, कृतानि, प्रस्थापितानि, निविष्टानि, अभिनिविष्टानि, अभिसमन्वागतानि, पर्यात्तानि, परिणामितानि, निर्जीर्णानि, निःसृतानि, निःसृष्टानि भवन्ति, तत् तेनार्थेन एवमुच्यते-वैक्रियपुद्गलपरिवर्तशब्दप्रतिपाद्यो वैक्रियपगलपरिवर्तः उक्तस्वरूपोऽवसेय इत्याशयेनाइ-शेषं तदेव पूर्वोक्तवदेव सर्व विशे. यम् , तथा प्रदर्शितमेवेति, ‘एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे' एवं पूर्वोक्तरीत्या, यावत्-तेजसपुद्गलपरिवर्तः, कार्मणपुद्गलपरिवर्तः, मनःपुद्गलपरिवर्तः, वचापुद्गलपरिवर्तः, आनमाणपुद्गलपरिवर्तश्च अवसेयः । विशेषमाह-'नवरं आणापाणुप्पाओग्गाई वैक्रियशरीर में वर्तमान जीव ने वैक्रियशरीर के निर्माणयोग्य द्रव्यों को-पद्धलद्रव्यों को-पैक्रियशरीरस्प से यहण किया है. उन्हें बद्ध किया है, स्पृष्ट किया है, विहित किया है, प्रस्थापित किया है, निविष्ट किया है, अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत किया है, परितगृहीत किया है, परिणामित किया है, निर्णि किया है, नि:मृत किया है, निःसृष्ट किया है, इस कारण वैक्रियपुद्गलपरिवर्त इस शब्दद्वारा प्रतिपाच यह वैक्रिय पुद्गलपरिवतं उक्तस्वरूपवाला है ऐसा जानना चाहियेइसी आशय को लेकर सूत्रकारने 'सेसं तंचेव सव्वं' ऐसा कहा है सो हमने यह बात ऊपर दिखला ही दी है। 'एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे' इसी प्रकार से यावत्-तेजसपुद्गलपरिवर्त, कार्मणपुद्गल. परिवर्त, मनापुद्गलपरिलत, वचापुद्गलपरिवर्त, और आनप्राणपुद्गलपरिपतका स्वरूप जानना चाहिये, इनके स्वरूप कथन में ऐसा कहना રીરનું નિર્માણ કરવાગ્ય પુદ્ગલ દ્રવ્યને વૈકિય શરીર રૂપે ગ્રહણ કર્યા છે, બદ્ધ કર્યા છે, પૂર્ણ કર્યા છે, વિહિત કર્યા છે, પ્રસ્થાપિત કર્યા છે, નિવિષ્ટ કર્યા છે, અભિનિવિષ્ટ કર્યા છે, અભિસમન્વાગત ક્યાં છે, પરિત ગ્રહીત કર્યા છે, પરિણામિત કર્યા છે, નિર્ણ કર્યા છે, નિત કર્યા છે, નિઃસૃષ્ટ કર્યા छ. ७ गौतम! ते २0 “पय पुगतपरिवत " मा शाह 43 प्रतिપદ્યમાન આ વિકિય પુદગલ પરિવર્તનું ઉપર દર્શાવ્યા પ્રમાણેનું સ્વરૂપ સમજવાનું छ. " सेसं तं चेव सव्वं " मा सूत्रा द्वारा सूचित थती पात २५०टी४२५ ५२ ४५वामां मान्य है " एवं जाव आणापाणुपोगलपरिय?" मेर પ્રમાણે તૈજસપુદ્ગલપરિવર્ત, કામણપુદ્ગલ પરિવર્ત, મન પુદ્ગલપરિવત, વચાપુ ગલપરિવર્ત અને આનપ્રાણપુદુગલ પરિવર્તનું સ્વરૂપ પણ સમજવું જોઈએ તેમના સ્વરૂપના કથનમાં એવું કહેવું જોઈએ કે
SR No.009320
Book TitleBhagwati Sutra Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages743
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size47 MB
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