SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 530
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१२ भगवतीस्त्रे प्रायश्चित्तः शुद्धप्रवेश्यानि वस्त्राणि माङ्गल्यानि प्रबरपरिहितः अल्पमहा. भरणालङ्कृतशरीरः 'जेणेन जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव य? जमालिस्स खत्तियकुमाररस पियरं जएम विजएणं वद्धावेई' यत्रैव यस्मिन्नेव स्थाने जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता आसोत , तत्रैव तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छनि, उपागत्य करतल यावत् शिरसावतै मस्त के अञ्जलिं कृत्वा जमाले क्षत्रियकुमारस्य पितरं जयेन विजयेन जयविजयमूचकशब्देन वर्द्ध यति ' बद्धावित्ता' एवं वयासी'-बर्द्धयित्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण आदीत्- संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिज्ज ?' एवं संगलरूप प्रायश्चित्त किया-फिर उसने अपने शरीर पर शुद्ध यडे घर पर जाने योग्य अच्छे २ कोमती कपड़े पहिरे-थोडे भारवाले एवं देश किमती अनेक आभूपण धारण किरे-इस तरह सय प्रकार से विभूषित होकर बह · जेणेव जमालिस्त खत्तियकुमारस्स पिया-तेणेव उवागच्छह ' क्षत्रियकुमार जमालि के पिता जहां पर थे-वहां पर आया 'उवागच्छित्ता कर चल जाव इटु जमालिस्स खत्तियकुमारस्सपियरंजए णं विजएणं वद्धावेई' वहां आकर उसने क्षत्रियकुमार जमालिके पिताको नतमस्तक होकर 'जय हो आपकी विजय हो' इस प्रकारके जय विजय सूचक शब्दों का उच्चारण करते हुए वधाई दी. यहां यावत् शब्द से " शिरसावर्त मस्त के अञ्जलिं" इस पाठ का ग्रहण किया गया है। 'बद्धावित्ता एवं वयासो' वधाई देकर फिर उमने इस प्रकार से कहा 'सदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिज्ज' हे देवानुप्रिय ! आप તેણે વાયસ અ દિને અન્ન આપવા રૂપ બલિકર્મ કર્યું તથા તુક અને મંગલ રૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યું. ત્યારબાદ તેણે પે તાના શરીર ઉપર શુદ્ધ, સારા સારા કિંમતી કપડાં પહેર્યા અને વજનમાં હલકાં પણ બહુમૂલ્યવાન એવાં આભૂષણે धा२५ ४ा, 2 शते सु१२ १२सो भने म भूषाथी विभूषित थचने “जेणेव अमालिस स्खत्तियकुमारस्स पिया, तेणेव उवागच्छद" ते क्षत्रियकुमार मालाना पितानी पासे माव्या. “ उवागच्छित्ता करयल जीव भट्ट जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पियर जएण विजएणं वद्धावेइ" त्या भावी तर भाथु नभावान तथा “ मानो य डी, मानो (१८५ " वां शहोना या२९ पूर्व क्षत्रियमा२ ०४मासीना पितान धा०. ही "जाव ( यावत् )" पहथी " शिरसावत' मस्तके अजलिं" मा सूत्र५४ अहए ४२वामा माये। छे. " वद्धावित्ता एवं क्यासी" यावन्यनुयार उरीन ते भने । प्रभाय धु-" संदिसंतु ण देवाणुप्पिया ! जं मए करणिशं" 3 नुप्रिय !
SR No.009318
Book TitleBhagwati Sutra Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy